________________ आचार्य हरिभद्र ने कहा है- जब गच्छ में किसी बहुश्रुत साधु के होने से सूत्रार्थ की वृद्धि हो रही हो और प्रतिमाकल्प स्वीकार करने वाले साधु में दशपूर्व से अधिक श्रुत पढ़ाने की शक्ति न हो, गच्छ बाधारहित हो, अथवा बाल, वृद्ध आदि की सेवा करने वाले हों तथा आचार्यादिं गच्छ के पालन में तत्पर हों, कोई नवीन दीक्षा लेने वाला न हो, उस समय ही प्रतिमाकल्प को स्वीकार किया जा सकता है। प्रतिमाकल्प को स्वीकार करने के बाद ही कर्मों का क्षय होता है। स्थविरकल्प के अनुष्ठान पूर्ण होने पर प्रतिमाकल्प को स्वीकार किया जाता है। प्रतिमाधारी को सदा सूत्रार्थ चिंतनरूप ध्यान करना चाहिए, जो कि रागद्वेष और मोह का विनाशक और मोक्ष का कारण होने से श्रेष्ठ है। . प्रतिमाकल्प धारण करने में समर्थ साधु को इसे अवश्य स्वीकार करना चाहिए, जो अयोग्य हों उन्हें केवल अभिग्रह विशेष ही ग्रहण करने चाहिए। इन सभी अभिग्रहों को अपनी शक्ति और जिनाज्ञा के अनुसार धारण करने वाले जीव शीघ्र ही संसार-सागर से मुक्त हो जाते हैं। एकोनविंश पंचाशक उन्नीसवें पंचाशक में ‘तपविधि' का वर्णन किया गया है, जिससे कषायों का निरोध हो, ब्रह्मचर्य का पालन हो, जिनेंद्रदेव की पूजा हो तथा भोजन का त्याग हो, वे सभी तप कहलाते हैं। बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से तप के दो प्रकार हैं - . बाह्य तप- जो तप बाह्य जगत् में तप के रूप में दिखलाई दे, उसे बाह्य तप कहते हैं। इसके निम्नलिखित प्रकार हैं ____1. अनशन - भोजन का त्याग ही अनशन कहलाता है। यह दो प्रकार का हैयावत्कथित अर्थात जीवनपर्यंत तक आहार का त्याग तथा इत्वर अर्थात् उपवास से लेकर छ: माह तक के लिए आहार का त्याग करना। ____2. उनोदरी - आवश्यकता से कम खाना उनोदरी है।। - 3. वृत्तिसंक्षेप - भिक्षाचर्या में विशेष अभिग्रह या नियम लेकर भिक्षा प्राप्त करना वृत्ति संक्षेप है। ___4. रसत्याग - दूध, दही आदि सभी रसों या कुछ रसों का त्याग करना रस त्याग है। 5. कायक्लेश - शरीर को कष्ट देना कायक्लेश है। किसी भी आसन में बैठकर