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________________ विधिपूर्वक ही होनी चाहिए, क्योंकि अविधिपूर्वक आलोचना करने से जिनाज्ञा का भंग होता है और चित्त मलिनता को प्राप्त करता है। आलोचना का काल दिवस, पक्ष, चातुर्मास आदि कहा गया है। सामान्यतया प्रतिदिन प्रतिक्रमण करते समय सुबह-शाम आलोचना की जाती है, लेकिन किसी विशिष्ट अपराध के होने पर या बीमारी या विहार यात्रा में होने पर पक्षादि में भी आलोचना करने का विधान है। विशेषकर पाक्षिक पर्व या चातुर्मास पर्व में आलोचना अवश्य करनी चाहिए, क्योंकि यह जिनाज्ञा है। आलोचना के योग्य व्यक्ति, आलोचना करने वाला योग्य गुरु, आलोचना क्रम, मनोभावों का प्रकाशन और द्रव्यादि शुद्धि- ये आलोचना के पांच द्वार हैं। सर्वप्रथम संविग्न, मायारहित, विद्वान्, कल्पस्थित, अनाशंसी, श्रद्धालु, आज्ञावान, दुष्कृत पापी, आलोचना समुत्सुक और अभिग्रह आदि प्रज्ञापनीय लक्षणों से युक्त साधु ही आलोचना के योग्य हैं। इसी प्रकार आचारवान, अवधारवान, व्यवहारवान, अपरिश्रावी, चारित्रवाला और कुशलमति गुरु ही आलोचना करवाने का अधिकारी है। आलोचना के क्रम में पहले छोटे अतिचारों को कहकर बाद में बड़े अतिचारों (दोषों) को कहना चाहिए। पुनः आलोचना के क्रम में संकल्पपूर्वक, संयम की रक्षा हेतु, यतनापूर्वक, कल्पपूर्वक, सम्भ्रम के कारण उचित-अनुचित का विवेक किए बिना जिस भाव से जो कार्य किया हो, वह सब गुरु के समक्ष यथास्वरूप निवेदन कर प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में आलोचना करनी चाहिए। ____ आलोचक को शल्य यानि पापानुष्ठान का उद्धार नहीं करने से होने वाले दुष्ट परिणामों को दिखाने वाले और शल्योद्धार करने में होने वाले लाभों को दिखाने वाले प्रसिद्ध सूत्रों से चित्त को मोक्षाभिमुख बनाकर आलोचना करनी चाहिए। इसी प्रकार गुरु को भी शिष्य के चित्त को संविग्न बनाकर उससे आलोचना करानी चाहिए। गीतार्थ के समक्ष अपने दुष्कृत्य का भावपूर्वक प्रकाशन नहीं करना भावशल्य है। जो गुरु या गीतार्थ के होने पर भी लज्जा आदि के कारण स्वयं ही आलोचना करके प्रायश्चित्त आदि ग्रहण करते हुए शुद्धि करते हैं, वे भावशल्य सहित होते हैं। जिस प्रकार व्रण चिकित्सा को सम्पूर्णतया जानने वाला व्यक्ति भी यदि शरीर में हुए खराब पीब आदि वाले फोड़े को बढ़ने दे, तो वह फोड़ा मृत्यु का कारण होने से अनिष्टकारी होता हैं, उसी प्रकार जिसने अपने भावशल्य को दूसरों को नहीं बतलाया हो उसके लिए चारित्ररूपी शरीर में स्थित यह अतिचाररूपी फोड़ा अनन्त जन्म-मरण का कारण होने से अनिष्टकारक होता है। शल्यसहित मरकर जीव संसाररूपी घोर अरण्य (जंगल) में प्रवेश करते हैं और उसमें दीर्घकाल तक भटकते हैं। तीनों लोकों के मित्र जिनेंद्रदेव ने इस आलोचना को भावारोग्य
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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