SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (भावों की शुद्धता) के रूप फ ल देने वाली कहा है। अतः मैं निदानरहित होकर भयंकर फलदायी सम्पूर्ण भावशल्य को गुरु के समक्ष विधिपूर्वक प्रकट करके दूर करूंगाऐसे भाव मन में उत्पन्न करना चाहिए। जिस प्रकार बालक अपनी माता के समक्ष बोलते हुए कार्य-अकार्य को छिपाए बिना जैसा होता है, वैसा कह देता है, उसी प्रकार साधु को साया और मद से मुक्त होकर अपने अपराध को यथातथ्य गुरु के समक्ष निवेदन कर देना चाहिए और गुरु ने अपराध की शुद्धि हेतु जो दण्ड दिया है, उसे यथावत् स्वीकार करना चाहिए। जिन दोषों को किया हो, उन दोषों को फिर से न करना ही सम्यक् आलोचना होती है। इसलिए मनुष्यत्व प्राप्त करके और दुष्कृत्यों के कारणभूत मनोभावों का त्याग करके मुमुक्षुओं को निरंतर आत्म-विशुद्धि का प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि निर्वाणरूप सुख अर्थात् भव-विरह का यही एकमात्र उपाय है। षोडश पंचाशक सोलहवें पंचाशक में प्रायश्चित्तविधि' का विवेचन किया गया है। सामान्यतया जिससे प्रायः चित्त-शुद्धि होती है, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। लेकिन प्राकृतभाषा में इसका पायच्छित्त रूप बनता है, अर्थात् जिससे पाप का छेदन होता है, वह पायच्छित्त कहलाता है। प्रायश्चित्त के आलोचना प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक - ये दस प्रकार बताए गए हैं। भावपूर्वक किया गया प्रायश्चित्त ही यथार्थ होता है। भव्य, आगमों में श्रद्धावान और संविग्न जीवों का प्रायश्चित्त भाव प्रायश्चित्त होता है और इससे भिन्न शेष जीवों का प्रायश्चित्त केवल द्रव्य प्रायश्चित्त होता है। भावरहित होने के कारण वह शुद्धि नहीं करने वाला होता है। आचार्य भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग नियुक्ति रूप शास्त्र में द्रव्य व्रण के दृष्टांत से चारित्राचार रूप भावव्रण की चिकित्सा का एक रूपक प्रस्तुत किया है। कहा है- शरीर में तद्भव और आगन्तुक ये दो प्रकार के व्रण होते हैं, जिनसे आगन्तुक व्रण का शल्योद्धरण किया जाता है, तद्भव व्रण का नहीं। जो शल्य पतला हो अधिक गहरा न हो उसे बाहर खींच लिया जाता है। उस स्थान का मर्दन भी नहीं किया जाता है। जो शल्य शरीर में प्रथम प्रकार के शल्य से थोड़ा अधिक चुभा हो, किंतु अधिक गहरा न हो ऐसे शल्य में शल्योद्धार, व्रणमर्दन और कर्णमलपूरण- ये तीन क्रियाएं होती हैं, किंतु यदि शल्य अधिक गहरा हो तो वैद्य व्रण में से शल्य निकालकर दर्द नहीं हो, इसके लिए थोड़ा खून निकालते हैं तथा शल्योद्धार करके व्रण जल्दी ठीक हो जाए, इसके लिए चिकित्साशास्त्र के अनुसार पथ्य, भोजन और औषधि दे करके व्रण को सुखाते हैं। यहां प्रायश्चित्त के प्रसंग में भावव्रण को भी (112)
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy