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________________ गीतार्थ और गीतार्थ की आज्ञा में रहने वाले अन्य साधुओं की प्रवृत्ति आगमविरुद्ध नहीं होती है, क्योंकि गीतार्थ कभी आप्तवचन का उल्लंघन नहीं करता है। गीतार्थ स्वयं चारित्र सम्पन्न होता है और सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले को ऐसा करने से रोकता है। इस तरह दोनों का ही चारित्र शुद्ध बनता है। चारित्र परिशुद्ध तब होता है जब सभी शीलांगों का पालन समवेत रूप से होता है, किंतु शीलांगों का समवेत पालन सभी नहीं कर सकते। इसका पालन वे ही कर सकते हैं, जो मोक्षार्थी संसार से विरक्त होकर जिनाज्ञा की आराधना में तत्पर बना हो, जो शक्ति के अनुरूप आगमोक्त क्रिया में उद्यत हो, जो कर्म दोषों को निर्जरित करता हो, जो सर्वत्र अप्रतिबद्ध होकर तैलपात्रधारक और राधावेधक (उपद्रवों की चिंता किए बिना आंख की पुतली को बेधने वाला) की तरह अत्यधिक अप्रमत्तपूर्वक रहे। ऐसा व्यक्ति ही सर्वविरति रूप चारित्र पालने में समर्थ होता है। आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने कहा है कि आगमोक्त गुणों से युक्त साधु ही साधु होता है। सुवर्ण का दृष्टांत देते हुए वे कहते हैं कि जिस प्रकार सुवर्ण के गुणों से रहित सुवर्ण वास्तविक सुवर्ण नहीं है, उसी प्रकार साधु के गुणों से रहित साधु वास्तविक साधु नहीं है। सुवर्ण के आठ गुण होते हैंविषघाती, रसायन, मंगलकारी, विनीत, प्रदक्षिणावर्त्त, गुरुक, अदाह्य और अकुलस्य। इसी प्रकार के गुण साधु में भी पाए जाते हैं। जिस प्रकार उपर्युक्त आठ गुणों से युक्त स्वर्ण ही वास्तविक स्वर्ण होता है, उसी प्रकार गुणरहित वेशमात्र से साधु वास्तविक अर्थ में साधु नहीं होता है। जो औद्देशिक आधाकर्म आदि दोषों से युक्त आहार करता है, वह निश्चय ही पृथ्वी आदि षट्काय के जीवों की हिंसा करता है। जो जिनभवन के बहाने अपने आवास का साधन जुटाता है तथा जानते हुए भी सचित्त जल पीता है, वह साधु कैसे हो सकता है? इस प्रकार सम्पूर्ण शीलांगों से युक्त शुभ अध्यवसाय वाले साधु ही सांसारिक दुःख का अंत करते हैं, अर्थात् भव विरह को प्राप्त होते हैं, अन्य द्रव्यलिंगी साधु नहीं। पंचदश पंचाशक यदि किसी कारणवश शीलांगों का अतिक्रमण हो जाता है, तो उसकी शुद्धि के लिए आलोचना करनी पड़ती है। अतः पंद्रहवें पंचाशक में आलोचनाविधि का वर्णन किया गया है। अपने दुष्कृत्यों को गुरु के समक्ष सद्भाव से कुछ भी छिपाए बिना बताना आलोचना है। अज्ञानतावश या राग-द्वेष से युक्त होकर किए गए कार्यों से अशुभ कार्य का बंध होता है, जिसके लिए भावपूर्वक आलोचना करना आवश्यक हो जाती है। आलोचना (110)
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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