________________ (7) उन्मिश्र - सचित्त बीज, कंद आदि मिला हुआ आहार उन्मिश्र आहार है। (8) अपरिणत - पूर्णतया अचित्त न हुआ हो या पूरी तरह पका न हो, ऐसा आहार लेना अपरिणत दोष है। (9) लिप्त - अखाद्य वस्तु से लिप्त आहार लेना। (10) छर्दित - देते समय आहारादि नीचे गिर रहा हो, ऐसा आहार लेना। उक्त बयालीस दोषों से रहित आहार ही साधुओं के योग्य है। आहार की शुद्धता को जानने के लिए अतीत-अनागत-वर्तमान काल सम्बंधी विचारणा करने से उसका ज्ञान हो जाता है। जो साधु इसको जानकर और आप्तवचनों को प्रमाण मानकर सम्पूर्ण पिण्डदोषों को दूर करता है, वह जल्दी ही अपनी संयम-यात्रा से मुक्ति को प्राप्त होता है। चतुर्दशक पंचाशक .. चौदहवें पंचाशक में हरिभद्र ने शीलांगों का निरूपण किया है। श्रमणों के शील सम्बंधी विषय पहलुओं को शीलांग कहा गया है। इनकी संख्या अट्ठारह हजार है। ये सभी शीलांग अखण्ड भावचारित्र वाले श्रमणों में पाए जाते हैं। तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पांच इंद्रिय, दस काय और दस श्रमणधर्म इनके पारस्परिक गुणन से अट्ठारह हजार शीलांग होते हैं, यथा - 34 34445X 10 10 = 18000 / शीलांगों की अट्ठारह हजार की यह संख्या अखण्ड भावचारित्रसम्पन्न मुनि में कभी कम नहीं होती है, क्योंकि प्रतिक्रमण सूत्र में इन अठारह हजार शीलांगों को धारण करने वाले मुनियों को ही वंदनीय कहा गया है। दूसरे यह कि अट्ठारह हजार में से कोई एक भी भाग न होने पर सर्वविरति नहीं होती है और सर्वविरति के बिना मुनि नहीं होता। अतः बुद्धिमानों को इन शीलांगों के सम्बंध में इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि कोई भी एक शीलांग तभी सम्यक् रूप से परिशुद्ध होता है, जब वह अन्य शीलांगों से युक्त होता है। यदि एक शीलांग स्वतंत्र रूप से पूर्ण हो, तो वह सर्वविरति रूप नहीं हो सकता, क्योंकि सभी शीलांग मिलकर ही सर्वविरति रूप होते हैं। सर्वविरति रूप शील (सम्यक् चारित्र) अट्ठारह हजार शीलांग वाला है। शील की यह अखण्डता या सम्पूर्णता अन्तःकरण के परिणामों की अपेक्षा से होती है। - जिन आज्ञा के विरुद्ध प्रवृत्ति चाहे अपने में विशुद्ध ही क्यों न हो विरतिभाव को अवश्य बाधित करती है। व्यक्ति की प्रवृत्ति प्रज्ञापनीय और अप्रज्ञापनीय ऐसी दो प्रकार की होती है। आगम सम्मत प्रवृत्ति प्रज्ञापनीय है और आगम विरुद्ध प्रवृत्ति अप्रज्ञापनीय। (109)