________________ (5) वनीपक - गृहस्थ की प्रशंसा करके भिक्षा प्राप्त करना वनीपक दोष है। (6) चिकित्सा - गृहस्थ की चिकित्सा करके आहार प्राप्त करना चिकित्सा दोष है। (7) क्रोधपिण्ड - भिक्षा नहीं देने पर श्राप दे दूंगा, ऐसा भय दिखाकर आहार प्राप्त करना क्रोधपिण्ड दोष है। (8) मानपिण्ड - अपने स्वाभिमान हेतु पारिवारिकजनों की बात न मानकर साधु को आहार देना मानपिण्ड दोष है। (9) मायापिण्ड - वेश परिवर्तन द्वारा गृहस्थ को धोखा देकर उससे आहार ग्रहण करना मायापिण्ड दोष है। (10) लोभपिण्ड - स्वादिष्ट आहार के लालच से अनेक घरों में भिक्षा हेतु जाना लोभपिण्ड दोष है। (11) पूर्वपश्चात्संस्तव - आहार ग्रहण करने से पूर्व या बाद में दाता की प्रशंसा करना। (12-15) विद्या-मंत्र-चूर्ण-योग प्रयोग- विद्या, मंत्र, चूर्ण और योग का प्रयोग कर आहार प्राप्त करना। (16) मूलकर्म - जिसके कारण पूर्व दीक्षा पर्याय छेदकर पुनः दीक्षा लेना होता है, जैसे ब्रह्मचर्य भंग करके या गर्भपात करवाकर भिक्षा लेना मूलकर्म दोष है। एषणा दोष - एषणा, गवेषणा, अन्वेषणा, ग्रहण- इन सभी का एक ही अर्थ है। आहार की एषणा के दोष इस प्रकार हैं - . (1) शंकित - आधाकर्मादि दोषों की शंका होने पर भी वह आहार लेना शंकित दोष है। (2) म्रक्षित (युक्त) - सचित्त वनस्पति पानी आदि से युक्त आहार लेना। (3) निक्षिप्त (रखा हुआ) - सचित्त वस्तु पर रखा हुआ आहार लेना। (4) पिहित (ढंका हुआ) - जो आहार सचित्त फलादि से ढंका हो, उसे ग्रहण करना। (5) संहृत - जिस बर्तन में सचित्त वस्तु रखी हो, उसी से साधु को आहार देना। (6) दायक - गर्भवती आदि भिक्षा देने के अयोग्य व्यक्तियों द्वारा भिक्षा लेना। (108