________________ गुरुकुलवास रूपी गुण से युक्त हैं और जिसमें सुविहित साधु के वसति-शुद्धि, विहारशुद्धि, भाषा-शुद्धि आदि लक्षण होते हैं, वही भावसाधु कहलाता है। भावसाधु रागरहित, निरपेक्ष तथा इंद्रियों को वश में रखने वाला होता है। इन गुणों से युक्त साधु ही अपने अच्छे आचरण से दूसरों में वैराग्य भावना उत्पन्न कर सकता है और स्वयं जल्दी ही शाश्वत सुख वाले मोक्ष को अर्थात् भव विरह को प्राप्त करता है। द्वादश पंचाशक बारहवें पंचाशक में हरिभद्र ने 'साधुसामाचारीविधि' का वर्णन किया है। साधु सामाचारी का तात्पर्य है, साधुओं को पालन करने योग्य आचार-सम्बंधी नियम। साधु सामाचारी दस प्रकार की हैं- इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आवश्यिकी, निषीधिका, आपृच्छना, प्रतिपृच्छना, छन्दना, निमंत्रणा और उपसम्पदा। इन सामाचारियों का वर्णन निम्न प्रकार है इच्छाकार सामाचारी - अन्य साधुओं की इच्छापूर्वक उनसे अपना काम कराना या स्वयं उनका काम करना इच्छा सामाचारी है। इसमें तीन बातें प्रमुख हैं- (1) अनिच्छापूर्वक न तो दूसरों से काम कराना चाहिए और न दूसरों का काम करना चाहिए, (2) अकारण न तो दूसरों से काम करवाना चाहिए और न दूसरों का काम करना चाहिए, (3) रत्नाधिक अर्थात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र में अपने से वरिष्ठ साधु से काम नहीं करवाना चाहिए। यदि स्वयं में कार्य करने की शक्ति हो तो दूसरों से वह कार्य न करवाकर दूसरों का कार्य स्वयं ही कर देना चाहिए, किंतु यदि दूसरे का कार्य करने में असमर्थ हो तो उसे असमर्थता व्यक्त कर देनी चाहिए कि आपका कार्य करने की मेरी इच्छा तो है, परंतु मैं वह कार्य करने में असमर्थ हूं। इस सामाचारी का पालन करने से पराश्रय की प्रवृत्ति समाप्त होती है, आत्मनिर्भरता में वृद्धि होती है, उच्चगोत्र कर्म का बंध होता है और जैनशासन के प्रति लोगों में सम्मान का भाव बढ़ता है। मिथ्याकार सामाचारी - मिहाव्रर्ता एवं समिति-गुप्ति के पालन म व्यक्ति सं यदि कोई गलती हो गई हो तो यह गलत हुआ है', ऐसा सोचकर उसका पश्चाताप कर लेना चाहिए, इससे कर्मक्षय होते हैं। तथाकार सामाचारी - कल्प्य और अकल्प्य का पूर्ण ज्ञान रखने वाले, पांच महाव्रतों का पालन करने वाले तथा संयम और तप से परिपूर्ण मुनियों के योग्य निर्देशों को बिना किसी शंका-कुशंका के स्वीकार कर लेना चाहिए। (104)