________________ के प्रति समर्पण भाव ही उनके ज्ञान और दर्शन का आधार है। प्रतिलेखन आदि शुभ अनुष्ठानों का पालन करना ही चारित्र धर्म का पालन है। आप्त की आज्ञा के पालन से ही चारित्र प्राप्त होता है- ऐसा आगमों में वर्णित है। जिनेंद्रदेव की यह स्पष्ट आज्ञा है कि साधुओं को गुरुकुलवास अर्थात् गुरु के सान्निध्य का त्याग नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुरुकुलवास ही मोक्ष का साधन है। गुरुकुलवास का त्याग नहीं करने वाले साधु श्रुतज्ञान के पात्र बनते हैं। इससे उनका दर्शन और चारित्र भी दृढ़ होता है। शास्त्रज्ञ शिष्य को गुरु आचार्य बना देते हैं। शान्ति, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य- ये दस साधु के धर्म हैं। इन धर्मों में पूर्णता गुरुकुलवास में रहने से ही आती है, अन्यथा इनका अभाव हो जाता है। गुरु की सेवा करने से साधक सदनुष्ठानों में सहभागी होता है और कर्म की निर्जरा होती है। सम्यग्ज्ञान और सदनुष्ठान रूपी गुणों से युक्त गुरु ही सच्चा गुरु है। अतः सच्चे गुरु के आश्रय में ही सदा रहना चाहिए। अपने से अधिक या समान गुणों वाला सहायक न मिलने पर अकेले ही विहार करना चाहिए- यह आगमवचन विशिष्ट साधु की अपेक्षा से है, सर्वसामान्य के लिए नहीं है। जात और अजात के भेद से कल्प दो प्रकार का है। पुनः समाप्त और असमाप्त के भेद से भी कल्प दो-दो प्रकार के होते हैं। एकाकी विहार करने वाले साधु को अनेक दोष लगते हैं, यथा- स्त्री सम्बंधी दोष, कुत्तों आदि के काटने का भय, साधु के प्रति द्वेष रखने वाले व्यक्तियों द्वारा आक्रमण, अशुद्ध भिक्षा आदि। इसीलिए जिनेंद्रदेव ने एक गीतार्थ (विशिष्ट साधु) का दूसरे गीतार्थ की निश्रा में रहने वाले साधु का विहार प्रतिपादित किया है। गीतार्थ साधु भी तभी एकाकी विहार करे, जब उसे कोई सहायक साधु न मिले। अगीतार्थ को तो सदा दूसरे के साथ ही विहार करना चाहिए। मूलगुणों से युक्त गुरु ही गुरु है। ऐसे गुरु का त्याग नहीं करना चाहिए। कृतज्ञ शिष्य उनका सदैव सम्मान ही करते हैं, किंतु जो कृतज्ञ नहीं होते हैं, वे ही गुरु की अवहेलना करते हैं, वस्तुतः वे साधु नहीं हैं। जो गुरुकुल का त्याग करते हैं, उनका सम्मान करना भी अहितकर है। तीर्थंकर की आज्ञा में रहने वाले साधु पांच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त, धर्म के प्रति अनुरागी, इंद्रियों और कषायों के विजेता, गम्भीर, बुद्धिमान, प्रज्ञापनीय और महासत्व वाले होते हैं। सम्यक्ज्ञान और दर्शन के होने पर ही सम्यक् चारित्र होता है। इसलिए जो सम्यक् चारित्र में स्थित है, वे सम्यक् ज्ञान और दर्शन में स्थित हैं। निश्चयनय की अपेक्षा से तो चारित्र का घात होने से ज्ञान और दर्शन का घात हो जाता है, किंतु व्यवहारनय की अपेक्षा से उनका घात हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। जो (103)