________________ चारित्र के प्रति निष्ठावान शुद्ध अध्यवसाय वाला जीव ही श्रमणत्व को प्राप्त कर सकता है। यद्यपि ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयोपशम से अल्प वय वाला भी प्रव्रज्या के योग्य बन जाता है, तथापि उसको भी उसी प्रकार दीक्षा दी जाती है, जिस प्रकार प्रतिमा का पालन करने वाले को। फिर भी भव-विरह अर्थात् मुक्ति के इच्छुक सामान्यजनों को इन प्रतिमाओं का पूर्णतया पालन करने के बाद ही दीक्षा लेनी चाहिए। एकादश पंचाशक - ग्यारहवें पंचाशक में साधुधर्मविधि' का वर्णन है। जो चारित्रयुक्त होता है, वही साधु है। देशचारित्र और सर्वचारित्र के भेद से चारित्र दो प्रकार का है। देशचारित्र से युक्त गृहस्थ व सर्वचारित्र से युक्त साधु होता है। सर्ववरिति चारित्र के पांच प्रकार हैं - सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात। 1. सामायिक - रागद्वेषादि से रहित समताभाव ही सामायिक है। इत्वर अर्थात् अल्पकालिक और यावत्कथित अर्थात् जीवनपर्यंत के भेद से सामायिक दो प्रकार का है। 2. छेदोपस्थापन - पूर्व दीक्षापर्याय का छेद करके महाव्रतों में उपस्थापन या आरोपण करना ही छेदोपस्थापन चारित्र कहलाता है। सातिचार और निरतिचार के भेद से इसके भी दो प्रकार हैं। 3. परिहारविशुद्धि - परिहार तप से आत्मविशुद्धि करना परिहार-विशुद्धि चारित्र है। निर्विशमानक और निर्विष्टकायिक के भेद से इसके भी दो प्रकार हैं। 4. सूक्ष्मसम्पराय - जिससे संसार-भ्रमण होता हों वह सम्पराय है। कषाय ही संसार-भ्रमण का कारण है, अतः कषाय को सम्पराय कहते हैं। कषायों के अत्यंत सूक्ष्म होने पर सूक्ष्मसम्पराय चारित्र होता है। इसके विशुद्धमान एवं क्लिश्यमान- ऐसे दो भेद हैं। 5. यथाख्यात - जैसा जिनेंद्रदेव ने कहा है, तदनुरूप निरपवाद रूप से चारित्रधर्म का पालन यथाख्यात चारित्र है, अर्थात् कषायरहित चारित्र यथाख्यात चारित्र है। चारित्र के सामायिक, छेदोपस्थापनादि भेद वस्तुतः तो सामायिक के ही भेद हैं, अतः इस प्रसंग में हरिभद्र ने सामायिक एवं गुरुकुलवास का विशेष रूप से वर्णन किया है। निर्जीव और सजीव सभी प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थों में समभाव रखना सामायिक है। सामायिक अर्थात् समभाव के होने पर ही सम्यक् ज्ञान और दर्शन होते हैं। इसी समत्व की अनुभूति से सामायिक अर्थात् चारित्र में श्रद्धा होती है। साधुओं का गुरु (102)