________________ अब्रह्मचर्य एवं सांसारिक आरम्भ-समारम्भ का त्याग ही पोषध कहलाता है। इन चारों के त्याग से धर्म की वृद्धि होती है। ___ कायोत्सर्गप्रतिमा- उपर्युक्त चारों प्रतिमाओं की साधना करते हुए श्रावक को अष्टमी व चतुर्दशी के दिन कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग में कषायविजेता और त्रिलोकपूज्य जिनों का ध्यान या अपने रागादि दोषों की आलोचना करनी चाहिए। अब्रह्मवर्जनप्रतिमा - उपर्युक्त पांचों प्रतिमाओं से युक्त श्रावक द्वारा अविचल चित्त होकर काम-वासना का पूर्णतया त्याग कर देना अब्रह्मवर्जन प्रतिमा है। सचित्तवर्जनप्रतिमा - इसमें श्रावक अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चारों प्रकार के सचित्त भोजन का त्याग करता है। __ आरम्भवर्जनप्रतिमा - इस प्रतिमा में श्रावक खेती आदि वे सभी कार्य जिनमें हिंसा होती है, स्वयं छोड़ देता है, लेकिन नौकरों से करवाता है। इससे उसके स्वयं द्वारा की जाने वाली हिंसा कम हो जाती है, जो उसके लिए लाभदायक होती है। प्रेष्यवर्जनप्रतिमा - इसमें श्रावक खेती आदि आरम्भ नौकरों से भी नहीं करवाता है। वह सारी जिम्मेदारियां अपने पुत्र, पारिवारिकजनों आदि पर छोड़ देता है। न तो वह स्वयं हिंसादि पापकर्म करता है और न अन्य से करवाता है। वह धन-धान्यादि के प्रति भी ममत्व नहीं रखता है। मात्र परिजनों द्वारा पूछे जाने पर योग्य सलाह दे देता है। - उद्दिष्टवर्जनप्रतिमा - इसमें श्रावक अपने लिए बने हुए भोजन आदि का भी त्याग कर देता है। मात्र परिजनों के यहां जाकर निर्दोष भोजन ग्रहण कर लेता है। श्रमणभूतप्रतिमा - इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक मुण्डित होकर साधु के समान सभी उपकरण लेकर भिक्षावृत्ति से जीवनयापन करता है। इन प्रतिमाओं के आचरण से श्रावक की आत्मा भावित होती है, जो श्रावक इन प्रतिमाओं का सम्यक् रूप से पालन कर लेता है, वह प्रव्रज्या के योग्य बन जाता है। इस प्रकार अपनी योग्यता का परीक्षण करके ली गई दीक्षा परिपूर्ण दीक्षा कहलाती है। सम्यग्ज्ञान होने पर जिन कारणों से संसार से विरक्ति होती है, उन्हीं से मोक्षमार्ग के प्रति प्रशस्त अनुराग उत्पन्न होता है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार जो प्रशस्त मन वाला है, वही श्रमण है। सद्गुण सम्पन्न, मान-अपमान आदि में समभावपूर्ण व्यवहार करने वाला श्रमण कहलाता है। (101)