________________ गुणों के पालन से सभी वांछित कर्मों की सिद्धि होती है। अर्हतों ने विशुद्ध मार्गानुसारी भाव को सकल वांछित कार्यों की सिद्धि का सफ ल हेतु कहा है। कल्याणक दिवसों में जिनमहोत्सव करने से तीर्थंकर का लोक में अति सम्मान होता है। इसलिए इन दिनों में जिनबिम्ब से युक्त रथ, शिबिका आदि महोत्सवपूर्वक नगर में घुमानी चाहिए। यह एक उत्कृष्ट क्रिया है, जिसे कल्याणक के दिनों में इंद्रादि देवों ने भी किया है। इसलिए दुर्लभ मनुष्ययोनि पाने के बाद कल्याणक के दिनों में जिनयात्रा अवश्य निकालनी चाहिए। शास्त्रवचन एवं पूर्वजों की परम्परा का अनुसरण न करना उनका अपमान करना है। अतः श्रद्धालु एवं सज्जन मनुष्यों को गुरुमुख से जिनयात्रा महोत्सवविधि को जानकर जिमयात्राओं का आयोजन करना चाहिए। दशम पंचाशक दसवें पंचाशक में 'उपासक प्रतिमाविधि' का वर्णन किया गया है। दशाश्रुतस्कंध में आचार्य भद्रबाहु ने निम्न ग्यारह प्रतिमाएं बताई हैं- दर्शन, व्रत, सामायिक, पौषध, नियम, अब्रह्मवर्जन, सचित्तवर्जन, आरम्भवर्जन, प्रेष्यवर्जन, उद्दिष्टवर्जन और श्रमणभूत। आचार्य हरिभद्र ने प्रतिमाओं के स्वरूप का वर्णन निम्न प्रकार से किया है- दर्शनप्रतिमा- सम्यग्दर्शनक के पालन करने को दर्शनप्रतिमा कहते हैं। इस अवस्था में मिथ्यात्व का क्षयोपशम हो जाने से व्यक्ति में दुराग्रह या कदाग्रह नहीं होता है। यह आस्तिक्य, अनुकम्पा, निर्वेद, संवेग और प्रशम- इन पांच गुणों से युक्त तथा शुभानुबंध से युक्त और शंकादि अतिचारों से रहित होती है। व्रतप्रतिमा - इस प्रतिमा में श्रावक स्थूल-प्राणातिपातविरमण आदि पांच अणुव्रतों का सम्यक् रूप से पालन करता है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष कर्मों की जितनी स्थिति है, उनमें से दो से नौ पल्योपम जितनी शेष रह जाने पर अणुव्रतों की प्राप्ति होती है। पांच अणुव्रतों का निरतिचार पालन करना ही व्रत प्रतिमा है। सामायिकप्रतिमा - सावधयोग का त्याग कर समभाव की साधना करना सामायिक है। यह सामायिक व्रत श्रावक द्वारा मुहूर्त आदि की एक निर्धारित समयावधि के लिए किया जाता है। सामायिक करते समय श्रावक साधु के समान ही समभावपूर्वक जीवन जीता है। पोषधप्रतिमा- जिनदेव द्वारा प्राप्त विधि के अनुसार आहार, देह, संस्कार, (100)