________________ (7) भोगादि के द्वारा प्रारब्धनाश, (8) देहत्याग के अनन्तर पौरुष ज्ञान का उदय तथा (9) मोक्ष अथवा परमेश्वरत्व की प्राप्ति। जीवों की तीन वृत्तियों को वर्णित करते हुए ब्रह्माण्ड पुराण में लिखा है-तामसी वृक्ति का जीव वस्तु को मूल स्थिति में नहीं जान पाता और तत्त्वदर्शन न कर पाने के कारण विविध बन्धनों में बंधता रहता है। मूल तत्त्व को न समझने का अर्थ है-अनित्य संसार को नित्य समझना, दुःख में सुख-दृष्टि रखना, अभाव में भाव-बुद्धि रखना, अपवित्र वस्तु को पवित्र मानना; यह विपरीत बुद्धि ही ज्ञान दोष अथवा मनोदोष कहलाती है। तमो गुण ही अज्ञान का मूल है। (इस तामसी वृत्ति की तुलना हम जैनानुसार वर्णित मिथ्यात्व से कर सकते हैं।) सत्-असत् कर्मों के समन्वित रूप शुभ-अशुभ फल का नाम रजोगुण है। उन्नत स्थिति की वृत्ति सात्विको कहलाती है। जीव का सत्वस्थ होना अर्थात् तत्त्व का बोध करना ही ज्ञान है और ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है-ज्ञान द्वारा (1) विषयों का वियोग (परित्याग), (2) अनासक्ति, (3) तृष्णाक्षय को मोक्ष प्राप्ति का साधन बताते हुए कहा है कि किसी प्रकार के सम्बन्ध न रहने का अर्थ कैवल्य है। इस कैवल्य से मनुष्य निरंजन (अंजन = माया और उस माया से रहित निरंजन) अर्थात् माया मुक्त हो जाता है और निरंजनता का अर्थ ही जीव का शुद्ध-बुद्ध-मुक्त परमहंस बन जाना है। आत्मज्ञान की उपादेयता जैन धर्म तथा पुराणों में आत्मज्ञान को सर्वाधिक महत्व दिया गया है तथा अज्ञान को संसार में संसरण का हेतु माना है। पुराणों में आत्मज्ञान का साधन आत्मा ही बताते हुए कहा है:- .. . “आस्मानं चात्मना वे-त्थ धारयात्मानमात्मना"५ कालिका पुराण के इस पद्यांश का यह तात्पर्य है कि अपनी आत्मा के द्वारा ही अपनी आत्मा को जानिए अर्थात् स्वयं ही अपने आपके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कीजिए और आत्मा से ही आत्मा को धारण कीजिए। लगभग यही आशय जैन धर्म के इस पद्य से स्पष्ट होता है-“समिक्खए अप्पगं अप्पएण। आत्मज्ञान की सर्वश्रेष्ठता प्रतिपादित करते हुए पुराणों के लिए कहा गया है कि “एक तरफ उनमें बिल्कुल साधारण तीर्थों का दर्शन मज्जन करने अथवा एकादशी, प्रदोष आदि का व्रत कर लेने से ही स्वर्ग अपवर्ग की प्राप्ति का लाभ बतलाया गया है; दूसरी तरफ ऐसे भी वर्णन मिलते हैं जिनमें तीर्थादि को बहुत निम्नकोटि का पुण्य बतलाया गया है और आत्मज्ञान को ही सर्वाधिक महत्व दिया है.। शास्त्रों में “स्नान और दर्शन करने योग्य तीर्थ, बालबुद्धि वाले (अल्पज्ञान युक्त) व्यक्तियों के लिए : ईश्वर का रूप होती है और आत्मज्ञानियों की दृष्टि में उनका आत्मा परमात्मा-स्वरूप . 79 / पुराणों में जैन धर्म