________________ 4. जाग्रतस्वप्न- इसमें जागते हुए भी भ्रम का समावेश होता है। 5. स्वप्न निद्रावस्था में आये हुए स्वप्न का जागने के पश्चात् जो भान . होता है, उसे स्वप्न भूमिका कहते हैं। 6. स्वप्न जाग्रत वर्षों तक प्रारम्भ रहे हुए स्वप्न का इसमें समावेश होता है जो शरीर-पात होने पर भी चलता रहता है। 7. सुषुप्तक-प्रगाढ़ निद्रा जैसी अवस्था, इसमें जड़ जैसी स्थिति हो जाती है और कर्म मात्रवासना रूप में रहे हुए होते हैं। 8. शुभेच्छा-आत्मावलोकन की वैराग्ययुक्त इच्छा। 9. विचारणा-शास्त्र और सत्संग के कारण वैराग्याभ्यास के कारण सदाचार में प्रवृत्ति। 10. तनुमानसा शुभेच्छा और विचारणा के कारण इन्द्रिय विषयों में आसक्ति कम होना। 11. सत्वापत्ति-सत्य और शुद्ध आत्मा में स्थिर होना। 12. अससक्ति-असंग रूप परिपाक से चित्त में निरतिशय आनन्द का , प्रादुर्भाव होना। 13. पदार्थ भाविनी-इसमें बाह्य और आभ्यंतर सभी पदार्थों पर से इच्छायें नष्ट हो जाती हैं। . 14. पूर्यगा–भेदभाव का बिल्कुल भान भूल जाने से एकमात्र स्वभाव निष्ठा में स्थित रहना। यह जीवन्मुक्त जैसी अवस्था होती है। विदेहमुक्ति का विषय उसके पश्चात् ही नूर्यातीत अवस्था है। इनमें से अज्ञान की सप्तभूमिकाओं में अज्ञान की प्रबलता से अविकास क्रम में और ज्ञान की सात भूमिकाओं में क्रमश: ज्ञान की बुद्धि होने से उन्हें विकास क्रम में गिना जा सकता है। पातंजलयोग प्रदीप में भी जाग्रत अवस्था, स्वप्नावस्था, सुषुप्ति अवस्था, प्रलयावस्था, समाधि प्रारम्भावस्था, सम्प्रज्ञात समाधि (एकाग्रता), विवेकख्याति (सम्प्रज्ञात एवं असम्प्रज्ञात समाधि के बीच की अवस्था), असम्प्रज्ञान समाधि (स्वरूपावस्थिति) और प्रति प्रसव (पुरुष का शुद्ध कैवल्य परमात्मस्वरूप में अवस्थित होना) इन अवस्थाओं का वर्णन करते हुए आत्मविकास क्रम बताया गया है।७२ योग दर्शन का पुराणों में अनेक स्थलों पर विस्तृत वर्णन है। पुराणों में अद्वैतमतानुसार दीक्षा प्राप्ति से पूर्णतया लाभ पर्यन्त अवस्थाओं का क्रम इस प्रकार दिया गया है (1) दीक्षा, (2) पौरुष, (3) अद्वय-आगमशास्त्र के श्रवण में अधिकार एवं श्रवणादि, (4) बौद्ध ज्ञान का उदय, (5) बौद्ध अज्ञान की निवृत्ति, (6) जीवन्मुक्ति, आत्मतत्त्व-चिन्तन / 78