________________ 6. प्रमत्तसंयत जो पूर्ण संयम को पालन करते हुए भी प्रमाद के कारण उसमें कभी-कभी -कुछ असावधान हो जाते हैं, उन श्रमणों को प्रमत्तसंयत कहते हैं। 7. अप्रमत्तसंयत–जो प्रमाद के न होने से अस्खलित संयम का पालन करते हैं, शुभध्यान में मग्न उन मुनियों को अप्रमत्तसंयत कहते हैं। 8. निवृत्तिबादर (अपूर्वकरण) —सुध्यान में मग्न जिन मुनियों के प्रत्येक समय में अपूर्व-अपूर्व परिणाम-भाव होते हैं, उन्हें अपूर्वकरण गुणस्थान वाला कहा जाता है। . 9. अनिवृत्तिबादर संपराय-इसमें बादर (स्थूलों) संपराय (कषाय) उदय में होता है। अतः यह अनिवृत्तिबादर संपराय गुणस्थान कहलाता है। 10. सूक्ष्म संपराय कषाय को परिणामों के द्वारा जो ध्यानस्थ मुनि सूक्ष्म कर डालते हैं, उन्हें सूक्ष्म संपराय गुणस्थान वाला कहा जाता है। 11. उपशांत मोह (उपशांत कषाय वीतरांग छास्थ) -जिनके कषाय उपशान्त (दबे) हुए हैं, राग का भी सर्वथा उदय न हो और जिनको छद्म (आवरण भूत घातिकर्म) लगे हुए हैं, वे जीव उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ (उपशांत मोह) हैं। ... 12. क्षीण मोह-क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाले (कषायों को क्षीण करने वाले. न कि दबाने वाले) मुनि मोह को धीरे-धीरे नष्ट करते हुए जब उसे सर्वथा निर्मूल कर डालते हैं तो उन्हें क्षीणमोह कहते हैं। 13. सयोगी केवली-जो चार घाति कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय. अन्तराय) का क्षय करके केवलज्ञान और दर्शन प्राप्त कर चुके हैं, जो पदार्थ के जानने देखने में इन्द्रिय, आलोक आदि की अपेक्षा नहीं रखते हैं; ये केवली आत्मा के शत्रु घातिकर्मों को जीत लेने के कारण परमात्मा जीवनमुक्त अरिहंत आदि नामों से पुकारे जाते हैं। 14. अयोगी केवली-जब केवली ध्यानस्थ होकर मन-वचन-काय का सब व्यापार बन्द कर देते हैं, तब उन्हें अयोगी केवली कहते हैं। ये शेष चार कर्मों को भी नष्ट करके मोक्ष लाभ प्राप्त करते हैं। .. इन गुणस्थानों में आत्मा का क्रमिक विकास दृष्टिगत होता है। जैन दर्शन के अतिरिक्त आत्मा के क्रमबद्ध विकास का योगवाशिष्ठ, पातंजल योग सूत्र आदि ग्रन्थों में भी वर्णन है। योगवाशिष्ठ में चौदह भूमिकाओं का विवेचन इस प्रकार हैं 1. बीजजाग्रत-इस भूमिका में अहं एवं ममत्व बुद्धि की जागृति नहीं होती है, किन्तु बीज रूप में जागृति की योग्यता रहती है। .. 2. जाग्रत इसमें अहं एवं ममत्वबुद्धि अल्पांश में जाग्रत होती है। 3. महाजाग्रत-इसमें अहं एवं ममत्वबुद्धि विशेष रूप से पुष्ट होती है। 77 / पुराणों में जैन धर्म