________________ हैं, जिनमें निम्न स्थान में आत्मा की स्थिति, मध्यम स्थान में अन्तरात्मा की स्थिति है और जो सबसे उत्कृष्ट श्रेणी का स्थान है, उसमें परमात्मा की स्थिति है। इस प्रकार देखा जाता है बद्धावस्था में स्थित आत्मा अपनी विभिन्न विकास की अवस्थाओं के आधार पर विभिन्न रूप से ज्ञान और शक्ति धारण करते हैं।६५ बद्धात्मा आत्मा बद्धावस्था में परिभ्रमण करता है, जिसका कारण कर्म है। जैनागम सूत्रकृतांग में कहा गया है कि सर्व प्राणी अपने कर्मों के कारण पृथक पृथक योनियों में अवस्थित हैं। कर्मों की अधीनता के कारण अव्यक्त दुःख से दुखित प्राणी जन्म, जरा और मरण से सदा भयभीत रहते हुए चार गति रूप संसार चक्र में भटकते हैं। बद्धात्माओं के विभिन्न गतियों में परिभ्रमण को पुराणों में भी बताया गया है कर्मणा नरगेहेष, पश्वादिष च कर्मणा। कर्मणा नरकं याति, वैकुण्ठं याति कर्मणा / / आत्मा की पूर्णता जैन दर्शन के अनुसार आत्मा की शक्तियों का अनावरण हो जाना अर्थात् उसके अनन्त चतुष्टय (अनन्त ज्ञान, दर्शन, सौख्य, वीर्यशक्ति) की पूर्ण अभिव्यक्ति परमात्मा-पद की उपलब्धि है और यही आत्म-तत्त्व की पूर्णता है। जैन धर्म तथा पुराण दोनों में आत्मा के पूर्णत्व का प्रतिपादन है। अनादिकालीन आत्मा की अपूर्ण दशा, मूढता को बताते हुए आत्मबोध होने पर प्रयत्न विशेष द्वारा पूर्णत्व की प्राप्ति को परम ध्येय निरूपित किया है। जैन दर्शन में आत्म विकास के कुछ सोपान बताते हुए निम्न प्रकार गुणस्थानों का विवरण पाया जाता है।९ ... 1. मिथ्यात्व प्रथम अवस्था मिथ्यात्व की होती है। इस अवस्था में स्व-पर के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं रहता, मान्यता अयथार्थ होती है। 2. सास्वादन-सम्यक्त्व से गिर जाने के बाद और मिथ्यात्व की भूमिका का स्पर्श करने से पहले की जीव की अवस्था सास्वादन गुणस्थान कहलाती है। 3. मिश्र जिस जीव की श्रद्धा न सम्यक् होती है और न मिथ्या होती है किन्तु मिश्र रूप होता है, उस जीव की अवस्था को मिश्र गुण स्थान कहते हैं। 4 अविरत सम्यग्दृष्टि जिस जीव की दृष्टि अर्थात् श्रद्धा समीचीन होती है. उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं और जो जीव सम्यग्दृष्टि तो होता है किन्तु संयम नहीं पालता, वह अविरत सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। 5. विरताविरत—जो संयत भी हो और असंयत भी हो अर्थात् व्रती गृहस्थों को विरताविरत कहते हैं। आत्मतत्त्व-चिन्तन / 76