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________________ संयोग बना रहता है, तब तक दीपक रहता है। ऐसे ही जन्म-मरण आदि संयोग है, तब तक. संसार है एवं संसार नाश होने पर आत्मा नष्ट नहीं होती।८ आत्मा के प्रकार शिवपुराणकार ने आत्मा के प्रमुखतः दो भेद बताये हैं—जीवात्मा एवं परमात्मा / जीव की परिभाषा करते हुए कहा है “जीर्यते जन्मकालाद्यत् तस्मा-ज्जीव इति स्मृतः। 59 आत्मा परमात्मा का अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखा है कि परमात्मा बहुज्ञ है, जीवात्मा अल्पज्ञ है। परमात्मा स्वतन्त्र है, जीवात्मा परतंत्र है: जन्यते तन्यते पाशैर्जीव शब्दार्थ एव हि इसी प्रकार जैन दर्शन में भी आत्मा में मुख्य दो प्रकार है। असंसार-समापन्नक (परमात्मा) तथा संसारसमापन्नक (संसारी)। पुनश्च,संसारी के भेद करते हुए-बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा-ये तीन प्रकार भी बताये हैं। जो शरीरादि में आत्मबुद्धि रखता है, वह बहिरात्मा है, आत्मेतर का विवेक जागृत हो गया, वह अन्तरात्मा है एवं कर्मरूपी मल से विमुक्त परमात्मा कहलाता है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार पर पदार्थ में सत्व को नियोजित करने वाला (मूर्च्छित) बहिरात्मा है। स्वयं की ओर लौटना (जागृत पुरुष) अन्तरात्मा है। परमात्मा, कैवल्यस्वरूप में स्थितप्रज्ञ होना है, स्वयं की परिस्थिति है।६२ कर्मयुक्त आत्मा जो संसार में परिभ्रमण करते हैं, वे संसारी आत्मा (जीवात्मा) तथा जो कर्मों का विनाश करके मुक्त हो चुके हैं, वे परमात्मा हैं। आत्मा और परमात्मा में स्वरूपतः कोई भेद नहीं है। धान और चावल एक ही है, अन्तर मात्र इतना है कि एक आवरण (छिलके) सहित है और दूसरा निरावरण इसी प्रकार आत्मा और परमात्मा एक ही है, फर्क है तो केवल कर्मरूप आवरण का है। छिलके सहित धानवत् मोह-ममता की खोल में जकड़ी हुई चेतना आत्मा है और छिलके रहित शुभ्र चावल के रूप में निरावरण शुद्ध चेतना परमात्मा है / 63 यही अन्तर जीव और शिव में बताते हुए शिवपुराण का कथन है—यह जीवात्मा अहंकार से युक्त है और शिव अहंकार से रहित है। जीव एक तुच्छ और कृतकर्मों को भोगने वाला है किन्तु शिव महान् और निर्लिप्त है। जिस प्रकार रजतादि से मिश्रित स्वर्ण अल्प मूल्य का होता है उसी प्रकार अहं युक्त होने से यह आत्मा जीव संज्ञा को धारण करता है। यद्यपि सभी आत्मा में आत्मता समान रूप से रहती है तथापि उनकी बद्धावस्था एवं मुक्तावस्था को लेकर उनमें परस्पर भेद का व्यवहार किया जाता है। बद्ध जीवों में कुछ लोग लय और भोग के अधिकार के अनुसार आकृष्ट और निकृष्ट होकर ज्ञान आदि की विषमता को प्राप्त होते हैं। परमात्मा शिव के समीपवर्ती स्वरूप में उत्कृष्ट, मध्यम तथा निकृष्ट भेद से तीन श्रेणियाँ होती . 75 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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