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________________ है।° उनमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आत्मा जिन-जिन कर्मों को करता है उनका वह फलभोग भी करता है। आत्मा का नित्यत्व आत्मा के नित्यत्व के विषय में वैदिक तथा जैन दोनों ही संस्कृतियाँ सहमत हैं। जैनागमों में आत्मा को शाश्वत अविनाशी निरूपित किया है-"नत्थि जीवस्स नासोत्ति” / आचारांग सूत्र में कहा गया है सम्पूर्ण लोक में किसी के द्वारा भी आत्मा का छेदन नहीं होता, भेदन नहीं होता, दहन नहीं होता और न हनन ही होता है / :2 जगत् के समस्त भौतिक विनाशशील पदार्थों से आत्मा भिन्न है। आत्मवादी दर्शनों के अनुसार “मनुष्य में मर्त्य और अमर्त्य का सुन्दर संयोग है। उसमें कुछ ऐसा है जो बार-बार बनता है, बिगड़ता-सड़ता है और मिटता है; परन्तु साथ ही कुछ ऐसा है जो न जन्मता है, न मरता है, न बुढ़ियाता है और न कभी सड़ता-गलता ही है। “वह चिरन्तन सुन्दर है।” मनुष्य में देह मर्त्य है और आत्मा अमृत है। उसके मर्त्य अंश उसको पार्थिव जगत् के साथ बांधे हुए हैं किन्तु उसके भीतर ही उसका दिव्य अंश भी है। जब तक मर्त्य और अमृत के अंशों को ठीक से न समझा जायेगा तब तक मनुष्य अतृप्त और अपूर्ण ही रहेगा।"५३ तात्पर्य यही है कि विभिन्न देहों को ग्रहण करते हुए. एवं छोड़ते हुए भी आत्मा अविनाशी है। दिखाई देने वाले शरीर इत्यादि सभी पदार्थ नश्वर, किन्तु नहीं दिखाई देने वाला आत्मा निरन्तर बना रहता है। जैन दर्शन के समान ही पुराणों में भी आत्मा को नित्य, अविनाशी, शाश्वत कहा है। शिवपुराणकार के अनुसार जो आत्मा को बुद्धि, शरीर एवं इन्द्रियस्वरूप समझते हैं, उनका दर्शन असम्यक् है;".शरीर के नष्ट होने पर आत्मा नष्ट नहीं होता। जिस प्रकार गृही अपने घर के जल जाने पर नवीन गृह बनाता है वैसे ही जीवात्मा भी नूतन देह में प्रवेश किया करता है। जैसे कोई मनुष्य अपने पुराने जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को त्यागकर पुनः नूतन वस्त्रों को अपने शरीर पर धारण करता है, उसी भाँति यह देही (जीवात्मा) अपने पूर्व शरीरों को त्यागकर नवीन शरीरों को अपना आवास-स्थान बनाता हुआ उन्हें धारण कर लेता है। मनुष्य का देह अनित्य है और आत्मा नित्य एवं अविनाशी है।५६ भागवत पुराण में आत्मा की नित्यता के सन्दर्भ में कहा गया यह आत्मा न जन्मता है, न मरता है, सर्वदेश और सर्वकाल में अखण्ड रीति से जो ज्ञान है, उसी का आश्रय आत्मा है। जब तक तेल, सकोरा, बत्ती और अग्नि आत्मतत्व-चिन्तन / 74
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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