________________ पुराणों में आत्मप्रदेशों का संकोच-विस्तार का स्पष्ट उल्लेख नहीं है परन्तु यह तो कहा गया है कि कीड़ी-कुञ्जर, देव-दानव-मानव सभी की आत्मा समान है, उनकी आत्मता में कोई अन्तर नहीं है। जिस आत्मा की संस्थिति किसी व्यापक (बड़े) शरीर में होती है, कर्मवश वह भवान्तर में छोटे शरीर में भी रहता है। मुख्यतः आत्मा को पुराणों में सर्वव्यापी (सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त) माना है। पुरुष (आत्मा) शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार भी अर्थ यही निकलता है-'पुरि शेते इति पुरुष' अर्थात् जो देह रूपी नगर में अथवा विश्व रूपी नगर में रहता है, वह पुरुष है। आत्मा का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व इस विषय में कई प्रकार के मन्तव्य प्रचलित हैं कुछ दर्शन ईश्वर को कर्ता मानते हैं, कुछ प्रकृति को एवं कुछ दर्शन आत्मा को कर्ता मानते हैं। जो आत्मा को कर्ता नहीं मानते उनके अनुसार जीव चेतन है अतः वह अचेतनरूप कर्म नहीं कर सकता, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य स्व-भाव का कर्ता है, पर भाव का नहीं" वस्तुतः यह कर्तृत्व विषयक वैभिन्न्य इसलिए है कि उन्होंने आत्मा को शुद्ध चैतन्य मान लिया तथा कर्म को शुद्ध पुद्गल; तथ्यतः वह आत्मा जो कर्म बंध से, कर्तृत्व से युक्त है, शुद्ध नहीं है। उसमें कर्म रूप अचेतन पूर्व से ही मिश्रित होता है। मात्र पुद्गल रूप अचेतन कर्म भी आत्मा को भ्रमण नहीं करा सकता, वह भी चैतन्य मिश्रित (चैतन्य द्वारा प्रभावित) होने से उस प्रकार की प्रवृत्ति करता है। अतः जो शुद्ध आत्मा है, वह कर्मबद्ध नहीं होता किन्तु जो अशुद्ध आत्मा है वही कर्ता एवं भोक्ता होता है; आत्मा का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व विभावदशा की अवस्था है। इस प्रकार चेतन (आत्मा) तथा अंचेतन (कर्म) के मिश्रित रूप को ही इंन अशुद्ध वैभाविक भावों का कर्ता मान सकते हैं। आत्मा के कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व को स्वीकृत करते हुए जैन दर्शन के अनुसार आत्मा स्वकृत कर्मों का ही फल भोगता है। आत्मा का अशुद्ध स्वभाव अनादि है, अतः वह अनादि से कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व से युक्त है। __पुराणों में आत्मा को अनादिकालीन अशुद्ध बताया गया है। जैन दर्शन के समान ही शुद्ध स्वरूप के प्रकट न होने का तथा अशुद्ध रूप में मिश्रित दशा एवं वैभाविक दशा का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि यदि कर्म सादि (सर्वथा नये रूप से शुद्ध आत्मा में प्रविष्ट) माना जाये अर्थात् पूर्व में सर्वथा, शुद्ध, बुद्ध स्वभाव वाला जीव होता है और बाद में वह कर्मलिप्त होता है तो मुक्त जीव भी पुनः कर्मलिप्त हो जायेंगे। अतः आत्मा अनादिकालीन कर्मबद्ध है तथा उसका अपना स्व-भाव वैभाविक दशा द्वारा आच्छादित होने से विभाव ही शुद्ध आत्मा का स्वभाव प्रतीत होता है। जैन दर्शन के समान ही पुराणों में भी शुद्ध आत्मा को कर्ता-भोक्ता न मानते हुए अनादिकालीन बद्धात्मा को ही कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता स्वीकार किया 73 / पुराणों में जैन धर्म