SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्माओं का अनेकत्व भी वर्णित है। आत्मा की मलकृत विभिन्न श्रेणियों में आत्माओं की बद्धावस्था एवं मुक्तावस्था तथा अनेक भेदों से अनेकत्व प्रकट होता है, यद्यपि सभी आत्माओं में आत्मता समान रूप से वर्तमान रहती है। वेदान्तेतर (न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, पूर्व मीमांसा, बौद्ध, जैन) दर्शनों का यही कथन है कि संसार में दृष्टिगोचर होने वाली अनेक आत्माओं में प्रत्येक स्वतन्त्र आत्मा है। वह अपने अस्तित्त्व के लिए तत्त्वतः किसी अन्य आत्मा पर आश्रित नहीं आत्मा की व्यापकता विभिन्न दर्शनों में प्रचलित कुछ मान्यताएं आत्मा को अणुरूप मानती हैं और कुछ विभुरूप, किन्तु जैन दर्शन इन दोनों से भिन्न यह मानता है कि आत्मा न तो अणुरूप है और न विभुरूष, किन्तु स्वदेह-परिमाण है। जीव को अस्तिकाय बताते हुए उसके असंख्यात प्रदेश कहे हैं, परन्तु जैसे जड़-परमाणुओं का संयोग-वियोग होता है वैसे आत्मप्रदेशों का संयोग-वियोग नहीं होता। आत्मा अपने स्वभाव से ही अनादिकाल से असंख्यात प्रदेशी है और अनन्तकाल तक रहेगा। यह असंख्यात प्रदेशों का अखण्ड पिण्ड है। जीवों का अवगाह लोकाकाश के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक क्षेत्र में है।३८ प्रदीप के प्रकाश की तरह प्रदेशों के संकोच और विस्तार द्वारा जीव लोकाकाश के असंख्यातवें आदि भाग में रहता है। अर्थात् जिस तरह एक बड़े मकान में दीपक रखने पर उसका प्रकाश समस्त मकान में फैल जाता है और उसी दीपक को एक छोटे बर्तन के भीतर रख देने से उसका प्रकाश उसी में संकुचित होकर रह जाता है; उसी तरह जीव भी जितना बड़ा या छोटा शरीर पाता है उसमें उतना ही विस्तृत या संकुचित होकर रह जाता है। पिपीलिका (चींटी) शरीरस्थ आत्मा जब हस्ती शरीर को प्राप्त करता है तो वह तत्प्रमाण हो जाता है।" इस प्रकार प्रत्येक आत्मा की विवक्षा से स्वदेह परिमाण बताया है एवं जीवों के समस्त लोक में व्याप्त होने से जीवत्व को लोक में सर्वव्यापी भी कहा है। वैदिक संस्कृति में भी आत्मा के प्रमाण पर चिंतन किया गया है। कुछ लोगों ने उसे अंगुष्ठ परिमाण' कहा है, कुछ विलस्त (बालिश्त) प्रमाण 2 तो किसी ने अणुप्रमाण, चावल या जौ प्रमाण" भी कहा है। साथ ही आत्मा को विभुरूप भी माना है, इन मतों के अतिरिक्त आत्मा को शरीर प्रमाण भी माना है। जैसे तलवार अपनी म्यान और अपने कुण्ड में व्याप्त है वैसे ही आत्मा शरीर में नख से लेकर शिखा तक व्याप्त है।५ अन्त में आत्मा अवर्ण्य मानते हुए उसे अणु से भी अणु तथा महान् से भी महान् बताया गया है। आत्मतत्व-चिन्तन / 72
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy