________________ होता है।"६ वस्तुतः जिसका अनन्तक चित्त आत्मा में ही व्यवस्थित हो गया है उसको समस्त तीर्थों अथवा आश्रमों की क्या आवश्यकता है? कि तेषां सकलैस्तीथैराश्रमैर्वा प्रयोजनम् येषां चानन्तकं चित्तमात्मन्येव व्यवस्थितम / / 77 मनुष्य का यह परम धर्म है कि वह आत्मा के सम्बोधस्वरूप चाले सुख में प्रविष्ट हो जाये। सन्त पुरुष आत्म तत्त्व को ही जानने योग्य कहा करते हैं, जिसको प्राप्त करके यह देहधारी समस्त कामनाओं को त्याग दिया करता है। आत्मतत्त्व से अज्ञान होने से ही भ्रम होता है. अज्ञानदशा में कर्तव्य-अकर्तव्य का सम्यक विवेक न होने से ही भ्रम होता है एवं ऐसी अज्ञानदशा में पशुवत् अवस्था हो जाती है। “मैं कौन हूँ” इस प्रकार का मन में भली-भाँति विचार करना चाहिए। यह सब कुछ जानने पर ही आप समझिये कि आपने सब कुछ जान लिया है। (देह आदि) अनात्म वस्तुओं में आत्मा तथा. जो वस्तुएँ अपनी नहीं हैं, उन्हें अपना समझना ही मूर्खता है।° भली-भाँति विमर्श करके ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। श्रवण के द्वारा, मनन के द्वारा मानना चाहिए। अपनी आत्मा में ही आत्मा का निर्धारण करके सुख-पूर्वक बंध . से प्रमुक्त हो जाना चाहिये। आत्म-हित ही सर्वोपरि है:___ त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् / / . अर्थात् सम्पूर्ण कुल की सुरक्षा के लिए एक (व्यक्ति) का त्याग कर देना चाहिए, पूरे ग्राम की सुरक्षा के लिए कुल को त्याग देवें, जनपद की रक्षा हो तो एक ग्राम का कुछ भी ध्यान न करें; किन्तु अपनी आत्मा का महत्व सबसे अधिक है। आत्मरक्षा (आत्म-कल्याण-सम्पादन) के लिए तो सम्पूर्ण पृथ्वी को भी त्याग देना चाहिए क्योंकि आत्मा ही योगियों के लिए भी दुर्जेय है, अतः पहले ही आत्मा के द्वारा आत्मा को जीत लेना चाहिए।८२ ___आत्म ज्ञान का महत्व जैन धर्म में भी पर्याप्त है। आत्मा को और किसी के द्वारा भी जीता नहीं जा सकता, क्योंकि आत्मा दुर्दमनीय है। अतः आत्मा के द्वारा आत्मा को जीत लेने पर ही सर्वदा सुख की प्राप्ति होती है। आत्मविजय प्राप्त होने पर सब कुछ जीत लिया जाता है। साधना के क्षेत्र में आत्मज्ञान नहीं हो और अन्य चाहे जितना ज्ञान हो तो वह साध्य को प्राप्त नहीं करा सकता है। आत्मज्ञान समस्त साधना का केन्द्र-बिन्दु है। आत्मज्ञान ही समस्त ज्ञान की कुंजी है। अतः सर्वप्रथम आत्मस्वरूप का बोध प्राप्त करना चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द के कथनानुसार “मोक्षकामी को आत्मा को जानना चाहिए, आत्मा पर ही श्रद्धा करना चाहिए और आत्मा की ही अनुभूति करनी चाहिए। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, प्रत्याख्यान (त्याग), संवर और योग सब आत्मा को आत्मतत्व-चिन्तन / 80