________________ पाने के साधन हैं, क्योंकि यही आत्मा ज्ञान में है, दर्शन में है, त्याग में है, संवर में है और योग. में है।"८६ __आचारांग सूत्र में आत्मा के विषय में विवेचन करते हुए कहा गया है-“जो आत्मा है, वह विज्ञाता है। जो विज्ञाता है, वही आत्मा है। जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है, जानने की इस शक्ति से आत्मा की प्रतीति होती है। "मैं कौन हूँ?” कहाँ से आया हूँ? इत्यादि प्रश्नों पर विचार किया गया है। इस प्रकार आत्मानुशासन के लिए ही जैन धर्म तथा पुराणों में प्रेरित किया गया है। पुराण तथा जैन धर्म ही नहीं, समस्त दर्शनों का उद्गम स्रोत आत्मतत्त्व ही है। उसी की खोज में विभिन्न विचारधाराएँ प्रवाहित हुईं। पुराण तथा जैन धर्म में न केवल समान रूप से आत्मा का अस्तित्त्व स्वीकृत है बल्कि आत्मा के बद्ध एवं मुक्त स्वरूप पर चिन्तन करते हुए बंध तथा मोक्ष के हेतुओं का विवेचन किया गया है। आत्मा का नित्य, अजर-अमर, अविनाशी रूप पुराण तथा जैन दर्शन के अतिरिक्त उपनिषदादि साहित्य में भी निरूपण है। जिस प्रकार से जैनदर्शन में आत्माएँ अनेक मानी गई हैं तथा आत्मा के साथ बंधन को आभास मात्र न मानते हुए वास्तविक माना है; उसी प्रकार अनेक आत्माएँ निरूपित करते हुए पुराणों में भी कर्म बंधन को वास्तविक माना है; जो मुक्ति से पूर्व तक आत्मा से सम्बद्ध रहता है। सूक्ष्म शरीर के रूप में कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध उसी प्रकार का है जिस प्रकार का जैन दर्शन में आत्मा के साथ कार्मण शरीर का है। “अप्पा सो परमप्पा” अर्थात् आत्मस्वातन्त्र्य स्वीकृत करते हुए आत्मा में परमात्मा होने की योग्यता तथा उसकी मुक्ति एवं कर्मनाश * में हेतुभूत साधना मार्ग भी निर्दिष्टं है। इस प्रकार कई मुख्य समानताएं आत्म-तत्त्व के चिन्तन में पुराण तथा जैन दर्शन से प्रस्फुट होती हैं। मात्र दर्शनों या धर्मों में ही नहीं; सर्वत्र आत्मतत्त्व की महत्ता स्वीकृत है। मनोवैज्ञानिक शोध मण्डल ने भी इसे स्वीकार किया है। इतना ही नहीं, भाषा-शास्त्रियों ने भी इस आत्मतत्त्व (अहंतत्त्व 'मैं) को अत्यन्त महत्व दिया है। वह संस्कृत भाषा में अहं के लिए प्रयुक्त उत्तम पुरुष तथा इंग्लिश के IP, जो सदा बड़े अक्षरों में लिखा जाता है, से भी स्पष्ट हो जाता है। वस्तुतः आत्मतत्त्व है ही इतना महत्वपूर्ण कि उसी के आधार पर समस्त प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं। 000 81 / पुराणों में जैन धर्म