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________________ समान प्रकृत में बाधक नहीं है, कारण अनादि से आत्मा का परिज्ञान होता आया है। विपरीत ज्ञान के मानने पर भी आत्मा का अस्तित्त्व सिद्ध होता है। पुरुष को देखकर उसमें स्थाणु (ढूंठ) रूप विपरीत बोध के द्वारा जैसे स्थाणु की सिद्धि होती है, उसी प्रकार आत्मा का यथार्थ बोध होगा। आत्मा के विषय में समीचीन बोध मानने पर उसका अस्तित्त्व अबाधित सिद्ध होता ही है।"१६ जैनदर्शनवत् पुराणों में भी आत्मा के अस्तित्त्व के लिए प्रमाण देते हुए कहा गया है कि “आत्मा प्रत्येक शरीर में स्वतः प्रकाश है। प्रत्येक व्यक्ति अनुभव करता है कि “मैं हूँ"। परन्तु इस “मैं” के साथ इतने प्रकार के अर्थ जुड़े हुए हैं कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप निश्चय करने के लिए विश्लेषण और तर्क की आवश्यकता है। इस विवेचना के लिए एक प्रणाली है-शब्दार्थ का विश्लेषण। “मैं” कभी-कभी शरीर के अर्थ में प्रयुक्त होता है, जैसे “मैं मोटा हूँ।” कभी-कभी “मैं” का व्यवहार ज्ञानेन्द्रिय के अर्थ में किया जाता है, जैसे “मैं सोचता हूँ।” कभी-कभी “मैं” से कर्मेन्द्रिय का बोध होता है, जैसे “मैं लँगड़ा हूँ।” परन्तु शरीर, इन्द्रिय आदि की आत्मता का खण्डन करते हुए शिवपुराण कहता है कि बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर आत्मा नहीं है, इनसे व्यतिरिक्त विभु, ध्रुव कोई आत्मा है किन्तु उसके लिए तर्क बड़ा दुर्गम है। फिर भी इतना तो निश्चय है कि बुद्धि, इन्द्रिय एवं शरीर आत्मा नहीं हो सकते, क्योंकि बुद्धि का ज्ञान अनियत है और एक अंग में पीड़ा होने पर सम्पूर्ण शरीर में उसका अनुभव नहीं होता अर्थात् अनियत ज्ञान होने से बुद्धि आत्मा नहीं हो सकती और एक अंग में व्यथा ह्येने पर सम्पूर्ण शरीर में उसका अनुभव न होने से शरीर एवं इन्द्रियाँ आत्मा नहीं बन सकती। अत: वेदों एवं उपनिषदों में अनुभूत पदार्थों का ज्ञाता, अन्तर्यामी कहा गया है।"१७ . आत्मा का स्वरूप जैन दर्शनसार के अनुसार “जो जीवन जीता है, इन्द्रिय-बल-आयु- श्वासोच्छ्वास इन चार प्राणों को धारण करता है, वह जीव है।१८ निश्चयनय से स्वचेत गत्मक स्वभाव वाला जीव है।" द्रव्यसंग्रह में जीव को उपयोगमय (ज्ञानदर्शनोपयोग), अमृतेक, कर्ता, स्वदेहपरिमाण, भोक्ता, संसारस्थ, सिद्ध तथा ऊर्ध्वगामी कहा है।"२० * आत्मा के ज्ञानमयत्व, अमूर्तिकत्व, नित्यत्व आदि गुणों को प्रतिपादित करते हुए पुराणों में कहा गया है-“यह आत्मा न तो चक्षुग्राह्य तथा न ही अपर इन्द्रियों का विषय हो सकता है। यह महान् आत्मा केवल प्रदीप्त मन के द्वारा ही प्रत्यक्ष किया जा सकता है। यह आत्मा न तो स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है। न तो यह कहीं ऊपर ही रहता है, न तिर्यक् और न नीचे ही। यह चल-शरीर में अशरीर, स्थाणु एवं अव्यय रूप से वर्तमान रहता है। धीर पुरुष विचार करने पर आत्मतत्त्व का साक्षात्कार कर पाते हैं / 21 आत्मा की अभौतिकता को व्यक्त करते 69 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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