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________________ - 4. कुछ विद्वान् जड़ और चेतन दोनों को परम तत्त्व मानते हैं और उनके स्वतन्त्र __ अस्तित्त्व में विश्वास करते हैं। सांख्य, जैन और देकार्त इस धारणा में विश्वास करते हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि मौलिक-तत्त्व के सम्बन्ध में विभिन्न विवाद हैं। जैन दर्शन के अनुसार-जड़ तथा जीव दोनों मौलिक तत्त्व हैं। आत्मा का अस्तित्त्व आत्मा के अस्तित्त्व के सम्बन्ध में जैन विचारकों ने कई तर्क प्रस्तुत किये हैं यथा जीव का अस्तित्त्व जीव शब्द से ही सिद्ध हो जाता है क्योंकि असत् की कोई सार्थ संज्ञा ही नहीं बनती। * जीव है या नहीं? यह सोचना मात्र ही जीव की सत्ता को सिद्ध करता है। देवदत्त जैसा सचेतन प्राणी ही यह सोच सकता है कि वह स्तम्भ है या पुरुष? “चिन्तये अतोस्मि' तथा सन्देहविधि द्वारा आत्मा के अस्तित्त्व को देकार्त ने भी असंदिग्ध सिद्ध किया है। 2 . यदि आत्मा ही न हो तो ऐसी कल्पना का प्रादुर्भाव ही कैसे हो कि मैं हूँ? जो निषेध कर रहा है, वह स्वयं ही आत्मा है। बिना अधिष्ठान के किसी ज्ञान की, संशय की उत्पत्ति नहीं हो सकती। आचारांग सूत्र में कहा गया है कि जिसके द्वारा जाना जाता है, वही आत्मा है / 13 एक प्राचीन जैनाचार्य के कथनानुसार-आत्मा शरीरोत्पत्ति के पूर्व था एवं शरीरान्त के पश्चात् भी विद्यमान रहता है। “तत्काल जन्मे हुए बालक में पूर्वजन्मगत अभ्यास के कारण माता के दुग्धपान की ओर अभिलाषा तथा प्रवृत्ति पाई जाती है। मरण के पश्चात् व्यन्तर आदि रूप में कभी-कभी जीव के पुनर्जन्म का बोध होता है। जन्मान्तर का किसी-किसी को स्मरण होता है। जड़तत्त्व का जीव के साथ अन्वय–सम्बन्ध नहीं पाया जाता। इसलिए अविनाशी आत्मा का अस्तित्त्व माने बिना अन्य गति नहीं है। इसी के समर्थक न्यायसूत्र के अनुसार-“यदि जन्म के पूर्व आत्मा को सद्भाव न होता तो वीतराग-भावसम्पन्न शिशु का जन्म होना चाहिए किन्तु अनुभव से ज्ञात होता है कि शिशु पूर्व-अनुभूत वासनाओं को साथ लेकर जन्म धारण करता है।"१५ आचार्य अकलंक का आत्मा के साथ सम्बन्ध-युक्तिवाद इस प्रकार से है-“आत्मा के विषय में उत्पन्न होने वाले ज्ञान के विषय में सभी विकल्पों द्वारा आत्मा की सिद्धि होती है। आत्मा के विषय में यदि सन्देह है तो भी आत्मा का सद्भाव सिद्ध होता है, क्योंकि सन्देह अवस्तु को विषय नहीं करता। संशयज्ञान उभयकोटि को स्पर्श करता है, आत्मा का यदि अभाव हो तो दो विकल्पों की ओर झुकने वाले ज्ञान का उदय कैसे होगा? अनध्यवसाय-ज्ञान भी जात्यन्ध को रूप के आत्मतत्त्व-चिन्तन / 68
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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