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________________ ऐतिहासिक समीक्षा जैनेतर दर्शनों में ऐतिहासिक रूप से आत्मवाद की समीक्षा करने पर ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में बाह्य दृष्टि (बाह्य इन्द्रियों) द्वारा ग्राह्य तत्त्वों को मौलिक तत्त्व माना गया यथा जल, वायु। इन्हीं को उपनिषदों में विश्व का मूल तत्त्व मानते हुए आत्मा या चैतन्य की सृष्टि करने वाला स्वीकृत किया है। बाह्य दृष्टि से विचारक्षेत्र में आने पर असत् सत् या आकाश जैसे तत्त्वों को मौलिक माना गया। तत्पश्चात् आत्माभिमुख दृष्टि होने पर प्राणतत्त्व को मौलिक माना गया। इसी के साथ ब्रह्म या आत्माद्वैत आदि धारणाएं उद्भूत हुईं। अद्वैतधारा के समानान्तर द्वैत-धारा भी प्रवाहित थी। जैन, वेदान्त, सांख्य दर्शन में विश्व के मूल में एक तत्त्व नहीं होकर चेतन एवं अचेतन दोनों तत्त्व हैं। वेदान्त दर्शनानुसार माया तत्त्व के कारण ही ब्रह्म नामक आत्म तत्त्व अपने आपको बंधा हुआ समझता है, परन्तु स्व-स्वरूप का भान होते ही माया से मुक्ति हो जाती है एवं ईश्वरीय स्वरूप प्राप्त हो जाता है। सांख्य दर्शन भी यही मान्यता प्रस्तुत करता है कि विश्व में केवल दो ही मूलभूत पदार्थ हैं-पुरुष तथा प्रकृति / पुरुष तत्त्व साक्षात् ईश्वरस्वरूप है किन्तु प्रकृति के सान्निध्य में वह स्वयं को बद्ध मान लेता है। यह विवेक जागृत होते ही कि यह सब प्रकृति का खेल है, वह परिमुक्त हो जाता है। वस्तुतः “वेदान्त दर्शन का ब्रह्म तत्त्व, सांख्य दर्शन का पुरुष तत्त्व तथा जैन दर्शन का आत्म तत्त्व लगभग समान है। उक्त तीनों दर्शनकारों की आत्मतत्त्व विवेचन प्रणाली भिन्न होती हुई भी सिद्धान्ततः समान है। आत्मा : एक मौलिक तत्त्व सभी दर्शनों के अनुसार संसार आत्म और अनात्म का संयोग है, परन्तु मूल तत्त्व क्या है, इस सम्बन्ध में प्रमुख चार धारणाएं हैं१. मूल तत्त्व जड़ (अचेतन) है और उसी से चेतन की उत्पत्ति होती है। . अजितकेशम्बलिन्, चार्वाक दार्शनिक और भौतिकवादी इस मत का प्रतिपादन ... करते हैं। 2. मूल तत्त्व चेतन है। उसी की अपेक्षा से जड़ की सत्ता मानी जा सकती है। बौद्ध विज्ञानवाद, शांकर वेदान्त और बर्कले इस मत का प्रतिपादन करते 3. कुछ विचारक ऐसे भी हैं, जिन्होंने परमतत्त्व को एक मानते हुए भी उसे जड़-चेतन उभयरूप स्वीकार किया और दोनों को ही उसका पर्याय माना। ... गीता, रामानुज और स्पिनोजा इस मत का प्रतिपादन करते हैं। . .. 67 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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