________________ आत्मतत्त्व-चिन्तन आत्मा का अस्तित्त्व सभी दर्शनों में स्वीकृत किया गया है। चार्वाक दर्शन भी यह नहीं कहता कि आत्मा का सर्वथा अभाव है किन्तु उसे एक स्वतन्त्र तत्त्व नहीं मानता। भारतीय दर्शनों की इसी विशेषता को दृष्टि-सन्मुख रखकर न्यायवार्तिककार उद्योतकर ने कहा है-“आत्मा के अस्तित्त्व के विषय में दार्शनिकों में सामान्यत: विवाद नहीं है। यदि विवाद है तो उसका सम्बन्ध आत्मा के स्वरूप-विशेष से है अर्थात् कोई शरीर को ही आत्मा मानते हैं, कोई बुद्धि को। कोई इन्द्रिय या मन को और कोई संघात को आत्मा समझता है। कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो इन सबसे पृथक् स्वतन्त्र आत्मा के अस्तित्त्व को स्वीकार करते हैं।" - चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त सभी दर्शन उसके स्वरूप (चैतन्य गुण) एवं उसकी व्याख्या में प्रायः कई समानताएं रखते हैं। आत्मा के स्वरूप, प्रदेशों, अमरता तथा पुनर्जन्म सम्बन्धी जीवन-शैली में भिन्नता होने पर भी सभी भारतीय दर्शनों का आत्मवाद सम्बन्धी धरातल एक जैसा ही है। आत्मा सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है एवं सम्पूर्ण ईश्वरीय शक्ति के रूप में इसका संविकास होता है-इस विषय में मतैक्य दृष्टिगत होता है। ईश्वर के स्वरूप में मतवैभिन्य होते हुए भी ईश्वर की सत्ता सभी दर्शनों में स्वीकृत है। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सभी दर्शन यह वर्णन अवश्य करते हैं कि अज्ञेय स्वरूप वाले ईश्वर-तत्त्व के साथ आत्मतत्त्व का किसी न किसी प्रकार से सम्बन्ध अवश्य है। दोनों का पृथक्-पृथक् अस्तित्त्व होते हुए मौलिक स्वरूप समान है। सभी भारतीय दर्शनों में आत्मतत्त्व को चेतनामय ज्ञानमय और अनुभूति सम्पन्न स्वीकार किया है। न्याय, वैशेषिक का मत थोड़ा सा भिन्न है। उनके अनुसार आत्मा का शरीर इन्द्रिय मन से सम्बन्ध होने पर चेतना उत्पन्न होती है।) इससे निश्चय होता है कि भारतीय दर्शन का चिन्तन मूल में एक जैसा ही है। सत्, चित् और आनन्द की प्राप्ति ही इसका मूल ध्येय है तथा चिरंतन सत्य का अनुसंधान करते हुए आत्मतत्त्व का जो शिवस्वरूप है, उसके मधुर संदर्शन में ही भारतीय दर्शनसपूह अपने आपको कृतकृत्य मानता है। ... आत्मतत्त्व-चिन्तन / 66