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________________ हुए मार्कण्डेयपुराण का कथन है-“न मैं पृथ्वी हूँ, न जल, न ज्योति, न वायु और न ही आकाश हूँ। न मैं शरीर हूँ और न ही मन हूँ, क्योंकि मैं शरीर और मन इन दोनों से पृथक् हूँ।"२२ ___आत्मा के गुण, अनेकत्व, कर्तृत्व भोक्तृत्व, नित्यत्व आदि पर प्रकाश डाला जा रहा है:आत्मा का चैतन्य स्वरूप आत्मा को चैतन्यगुण युक्त मानते हुए तत्त्वार्थसूत्र में जीव का लक्षण उपयोग . (चेतना) है / 23 जीव का उपयोग (ज्ञानदर्शनोपयोग) स्वभाव है, इसके बिना वह जीव नहीं हो सकता।२४ चाहे कितना भी सघन कर्म का आवरण उस पर छा जाये, उसका ज्ञानमय स्वभाव जड़ता में नहीं बदलता। आवरण के कारण स्वरूप प्रकट नहीं हो सकता। जैसे सूर्य पर घने बादल आ जाने से वह उनमें छिप जाता है तथा बादलों के कारण उसकी तेजस्विता आच्छादित हो जाती है परन्तु जैसे ही वायु आदि संयोग से वे हट जाते हैं, उसका पूर्ण प्रकाश सम्मुख आ जाता है; इसी प्रकार आत्मा पर आच्छादित कर्म रूपी बादलों से उसका विशुद्ध चैतन्य आवृत हो जाता है तथा उनके हटने पर वह निरावरण हो जाता है। जिस प्रकार अग्नि का गुण प्रकाश या उष्णता, अग्नि से भिन्न नहीं है, उसी प्रकार जीव से चेतना पृथक् नहीं है। यद्यपि आत्माएं अनन्त ज्ञान-दर्शनमय हैं किन्तु मेघाछन्न सूर्यवत् उनके वे गुण ढंके हुए हैं, फिर भी सघन से सघन मेघों से आच्छादित होकर भी सूर्य रात-दिन का भेद दिखलाता है; वैसे ही निबिड़तर कर्मों द्वारा आवृत आत्मा भी अपने चैतन्य गुण को किसी न किसी अंश में अवश्य प्रकाशित करता है अर्थात् चैतन्त का सदैव प्रतिभास बना रहता है। वह सदा स्थायी ज्ञानादि गुण का ही सम्यक् या मिथ्यारूप में प्रकटीकरण होता रहता है। जैसे रंगीन कांच में से सूर्य का प्रकाश स्वच्छता रहित, कांच के रंग जैसा ही लाल, हरा आदि पड़ता है उसी प्रकार मिथ्यात्व के उदय से ज्ञान का विपरीत प्रकाश पड़ता है। चैतन्यधारक होने से ही जीव चेतन कहलाता है।२५ / ____ आत्मा के चैतन्य गुण को पुराणों में भी स्वीकार किया गया है / 26 आत्मचैतन्य के कारण ही जड़ शरीर भी चैतन्यवत् प्रतीत होता है। चैतन्य स्वरूप होते हुए भी जीव मायीय, कार्मज और आणविक इन तीन प्रकार के मल-पाशों में बद्ध है। जीव का स्वरूप मायावरण से ढंका रहता है। जब तक उसको इस जाल से छूटने का ज्ञान नहीं होता या उस पर अनुग्रह नहीं होता, वह अपने स्वरूप को भूला रहता है।" आत्मा स्वरूपतः ज्ञानमय (चैतन्ययुक्त) होते हुए भी उसकी वृत्ति भिन्न क्यों हो जाती है? इस बात का समाधान इस प्रकार से किया गया है कि जिस प्रकार जल धवल प्रतीत होता है। रक्तमेघ से आच्छन्न होने पर वही रक्त ज्ञात होता है तथा कृष्णमेघ से आच्छन्न होने पर कृष्ण प्रतीत होता है, उसी प्रकार आत्मा भी विभिन्न शरीरों से आत्मतत्त्व-चिन्तन / 70 .
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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