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________________ पुद्गलद्रव्य समस्त द्रव्यों में एकमात्र पुल ही रूपी द्रव्य है अर्थात् वर्णादि सहित है, शेष सभी द्रव्य अरूपी हैं। जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पाया जाता है वषा परस्पर में मिलकर त्रिकोण, चौकोण, गोल आदि आकारों में और पिण्ड (स्कन्छ) रूप एवं परस्पर एक-दूसरे से विलग होकर परमाणु रूप में बन जाता है, वह पुटूल है।" - इन्द्रियों द्वारा जो कुछ सुना जाता है, देखा जाता है, सूंघा जाता है, कुबा बाना है, चखा जाता है वह सब पुल द्रव्य की पर्यायें हैं। पुदल के दो भेद है अणु तथा स्कन्ध। पुल का सबसे छोटा हिस्सा अणु कहा जाता है एवं एक अणु में एक से लेकर अधिक अणुओं के मिलने से स्कन्ध बनता है। पुदलों के मिलने एवं विलग होने की क्रिया स्वाभाविक रूप से होती रहती है। जैन दार्शनिक भाषा में इसे संघात तथा भेद कहा जाता है। शब्द (वीणादि का शब्द), बंध (घट आदि में मृत्पिण्ड रूप पुल का, तथा जीव वा पुद्गल का संयोग रूप कर्म या नोकर्म का बंध), सूक्ष्मत्व (वेल के फल की अपेक्षा बेर में और परमाणु में साक्षात् सूक्ष्मता), स्थूलत्व (वेर के फल की अपेक्षा वेत में तथा लोकत्रय में व्याप्त महास्कन्ध में. स्वयमेव स्थूलवा), संस्थान (गोल, त्रिकोण आदि आकार तथा समचतुरस आदि संस्थान), भेद (गेहूं का बाय, दलिया आदि खण्ड), तम (दृष्टि का रोधक अन्धकार), छाया (प्रतिबिम्ब, धूप में मनुष्यादि को और दर्पण में मुखादि की अया), उद्योग (चन्द्रविमान, चन्द्रकान्तमणि या बुगनू आदि निर्वच जीवों में प्रकाश), आतप (सूर्य प्रकाश में या सूर्यकान्तमणि आदि रूप पृथ्वीकाय का प्रकाश) ये सब पुदल द्रव्य की पर्याय विभाव व्यञ्जन पर्याये) है।" बिकने श्री मूर्तिमान पदार्थ विश्व में दिखाई देते हैं, वे सब पुद्गल द्रव्य के ही नाना रूप है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वृक्ष, पशु-पक्षी-मनुष्यादि के शरीर-ये सब पौदतिक रूप हैं। पुदल का सूक्ष्मतम रूप परमाणु है, जो अत्यन्त लघु होने के कारण इन्द्रिय पाह नहीं होता। ये परमाणु द्रव्यरूप में शाश्वत और पर्यायरूप में अशाश्वत है।" पुदत स्कन्धों का भेद और संघात निरन्तर होता रहता है और इसी पूरण और गलन के कारण इसका पुद्गल नाम सार्थक होता है-३५ "पुरणाद् गलनाद् पुदल पुटूत को अनन्त, लोकप्रमाण, अजीव माना गया है। जैनदर्शन के समान पौद्रलिक पदार्थों को पुराणों में भी जड़ तथा मो-निगड़ते रहने वाला कहा है। उनका आविर्भाव-तिरोभाव चलता रहता है। जिस प्रकार से जैनदर्शन के अनुसार पुल का आत्मा के साथ सम्बन्ध अनादि होते हुए भी स्थायी नहीं है, इसी के कारण (कार्मण शरीर के द्वारा) ही आत्मा संसारस्थ रहती है; इसी प्रकार से पुराणों में भी आत्मा पर आवृत मल को पौलिक तथा बड़ बताया गया। द्रव्य - विचार / 62
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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