________________ है, वह भूतकाल में वैसा ही था और भविष्य में भी वह उस रूप में रहेगा और साथ ही उसकी अनित्यता भी बताई गई है जो जगत् के परिवर्तनों में दिखाई देता है। अव्यक्त रूप से सत् का अस्तित्व बना रहता है किन्तु उसका व्यक्त रूप परिवर्तित होता रहता है। कारणावस्था में रहने पर जिस तत्व को अव्यक्त कहते हैं उसी को कार्यावस्था में व्यक्त कहा जाता है। उदाहरण के लिये कारणावस्था को मिट्टी का लोंदा और कार्यावस्था को घट कहा जाता है।" घटादि कार्यमृदादि से भिन्न नहीं होते। घट उसका परिवर्तित रूप है। घट में मृतिका तो सत्रूपेण स्थायी है। चाहे घट की उत्पत्ति हो या विनाश / द्रव्य-भेद जैनदर्शन में षड्द्रव्यों का निरूपण किया गया है१. धर्मास्तिकाय 2. अधर्मास्तिकाय 3. आकाशस्तिकाय 4. काल 5. पुलास्तिकाय . 6. जीवास्तिकाय२ काल सावयव नहीं है अत: वह अस्तिकाय नहीं है। धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य संख्या में एक-एक हैं तथा काल, पुद्गल एवं जीव अनन्त हैं। इन्हें दो प्रकार के द्रव्यों में भी समाविष्ट किया जा सकता है१. जीव द्रव्य 2. अजीव द्रव्य अजीव द्रव्य में जीवास्तिकाय के अतिरिक्त अन्य पाँचों द्रव्यों का ग्रहण हो जाता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय / . यहाँ धर्म-अधर्म का तात्पर्य पुण्य-पाप नहीं है। धर्म-अधर्म सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। ये दोनों जीव और पुल की तरह स्वतन्त्र पदार्थ हैं। जो जीव तथा पुद्रल को चलने एवं ठहरने में सहायक होते हैं वे क्रमशः धर्म तथा अधर्म द्रव्य कहे जाते हैं। यद्यपि चलने और ठहरने की शक्ति तो जीव और पुगल में ही है किन्तु बाह्य सहायता के बिना शक्ति की अभिव्यक्ति हो नहीं हो सकती, अतः इन दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया गया है। जिस प्रकार मछली के लिये बल चलने में अप्रत्यक्ष रूप से सहकारी है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल द्रव्यों का धर्मद्रव्य गमन करने में सहकारी कारण माना गया है। अधर्मद्रव्य स्थिति में ठीक वैसे ही सहायक होता है, जैसे थके हुए पथिक को विश्राम करने में (ठहरने में) छाया सहायक होती है। तात्पर्य यही है कि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य जीव, पुद्गल द्रव्यों को न तो जबर्दस्ती चलाते हैं और न ही ठहराते हैं परन्तु निमित्त रूप से उनके चलने और ठहरने में सहायक बनते हैं। द्रव्य - विचार / 56