________________ यदि इनको चलने या ठहरने में उदासीन कारण न मानकर प्रेरक कारण माना जाये तो यह बाधा उपस्थित होगी कि धर्मद्रव्य एवं अधर्मद्रव्य सर्वत्र एवं सर्वदा लोक में पाये जाते हैं। इससे जब धर्मद्रव्य चलने में सहायक होगा, तब अधर्मद्रव्य चलने में बाधक होगा, तथा अधर्मद्रव्य ठहरने में सहायक होगा, तब धर्मद्रव्य ठहरने में बाधक होगा। इससे सिद्ध होता है कि दोनों द्रव्य उदासीन रूप से ही सहायक हैं।" पुराणों में यद्यपि गति एवं विश्रान्ति के सन्दर्भ में धर्म-अधर्म का उल्लेख नहीं है तथापि रजस् एवं तमस् को धर्म-अधर्म के स्थान पर देख सकते हैं। वैसे ये धर्म, अधर्म की भांति स्वतन्त्र द्रव्य नहीं हैं। यही नहीं, ये (रजस, तमस) धर्म-अधर्म की भाँति उदासीन भी नहीं हैं तथापि गति एवं विश्राम के सिद्धान्त होने के कारण यहाँ उल्लेखनीय है। सांख्यदर्शन के समान ही पुराणों में भी प्रकृति को त्रिगुणात्मक माना है। सत्व द्वारा अव्यक्त पदार्थों की अभिव्यक्ति तथा प्रकाश होता है। रजस् के कारण गति होती है तथा तमस् द्वारा विश्रान्तिं अर्थात् प्रतिरोध बताया गया है। इस प्रकार पुराणों में रजस् गतिशीलता का एवं तमस् अवरोध का द्योतक है। सांख्यदर्शनानुसार भी रजोगुण प्रेरक (प्रवर्तक, प्रोत्साहक) क्रियाशील है तथा तमोगुण गुरुत्वधर्मी (भारीपन लाने वाला), कार्य का प्रतिबन्धक है। आकाशस्तिकाय जो सभी द्रव्यों को अवकाश (स्थान) देता है, उसे आकाश कहते हैं।" आकाश लोक तथा अलोक सर्वत्र व्यापक है। आकाश के दो भेद है-लोकाकाश तथा अलोकाकाश। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल-ये द्रव्य जितने आकाश क्षेत्र में रहते हैं, वह लोकाकाश है। इसके अतिरिक्त जहाँ आकाश के सिवाय अन्य कोई द्रव्य नहीं हो, उसे अलोकाकाश कहते हैं। उपर्युक्त आकाश का पुराणों में भी उल्लेख है। पुराणों में आकाश के सम्बन्ध में कहा गया है कि “आकाश अनन्त है। इसकी अपनी गरिमा है। इसमें चतुर्दश ब्रह्माण्ड हैं, चन्द्रमा और सूर्य कुछ सीमित क्षेत्र को ही प्रकाशित करते हैं। अन्तरिक्ष का वह.क्षेत्र जो उनकी रश्मियों से परे है, उसे वे प्रकाशयुक्त नहीं कर सकते।८ काल जो द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक है, उसे कालद्रव्य कहते हैं। . “वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य 9 अर्थात् वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व. ये सब कालद्रव्य के उपकार है। सभी द्रव्य अपने आप वर्तित होते हैं तथापि उनके वर्तन में जो बाह्य सहकारी कारण होता है, उसे वर्तना कहते हैं। अपने स्वभाव को न छोड़कर द्रव्यों की पर्यायों के बदलने को परिणाम कहते हैं, जैसे जीवों के परिणाम क्रोधादि और पुदलों के परिणाम अणु आदि। एक स्थान 57 / पुराणों में जैन धर्म