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________________ "नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः // अर्थात् असत् की उत्पत्ति होती नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं होता। द्रव्यं की नित्यानित्यता के सन्दर्भ में आचार्य समन्तभद्र का कथन है वस्तु को यदि सर्वथा नित्य मानी जाये तो उसमें उत्पाद, व्यय नहीं हो सकता। उसी प्रकार उसमें क्रिया या कारक भी नहीं बन सकता। अतः प्रत्येक वस्तु कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य अर्थात् नित्यानित्य है। असत् वस्तु की कभी उत्पत्ति नहीं होती और सद का नाश भी नहीं होता। दीपक बुझ जाता है इसका अर्थ यह नहीं है कि दीपक का सर्वथा नाश हो गया किन्तु यह है कि अन्धकार पुदलरूप में उसका परिवर्तन हो गया अर्थात् अन्धकाररूप से सद्भाव हो गया। असत् पदार्थ की भी यदि उत्पत्ति हो तो फिर शशक के सींग या आकाश-पुष्प की भी उत्पत्ति होनी चाहिए। अतः अनेकान्तवाद के धरातल पर द्रव्य अनादि अनंत स्वतः सिद्ध है। द्रव्यरूप से ध्रुव तथा पर्यायरूप से उत्पत्ति एवं विनाशशील है। पदार्थों में रूपान्तर जो होता है. वह अपनी जाति से विरुद्ध नहीं होता अर्थात एक द्रव्य, दूसरा द्रव्य नहीं बन सकता। जड़ का रूपान्तर जड़ ही होता है और चेतन का रूपान्तर (पर्यायान्तर) चेतन ही होता है। जड़ कभी चेतन नहीं बनता और चेतन कभी बड़ नहीं बन सकता। जगत् में जितने जीव हैं, अनन्तकाल तक उतने ही रहेंगे और बितने बड़ परमाणु हैं; वे भी उतने ही रहेंगे। न तो एक भी जीव कम हो सकता है और न एक भी परमाणु कम हो सकता है। परमाणुओं में मिलने-बिछुड़ने का गुण है। अत: जड़ को विनाशशील कहा जाता है। जीव में रूपान्तरण तो होता है किन्तु बीव के प्रदेशों में मिलने-बिछुड़ने का धर्म नहीं है अर्थात् किसी जीव के कुछ प्रदेश उससे अलग नहीं हो सकते और न दूसरे जीव में मिल सकते हैं। सत् को उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य युक्त बताने का तात्पर्य यही है / सत् स्थायी है, तथापि उसमें विकार दिखाई देते हैं, जो प्रकट और लुप्त होते रहते हैं। उदाहरणार्थ, एक जीव की अनेक शरीरी अवस्थाएं होती हैं, वह प्रत्येक जन्म में एक शरीर धारण करता है बो सादि-सान्त होता है, परन्तु जीव स्वयं अनादि अनन्त है। इस प्रकार 'बदलते रहना और उसके बावजूद स्थायी रहना” सत् की विशेषता है। द्रव्य (सत्) के इस स्वरूप को पुराणों का भी समर्थन प्राप्त है। उसके ध्रुवत्व का वर्णन पुराणों में भी दृष्टिगत होता है। यथा प्रकृति को सत् माना गया है किन्तु फिर भी परिणामी मानते हुए उसके परिवर्तन-विकार का वर्णन किया है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि सृष्टि कभी एकदम से उत्पन्न हुई और पूर्ण नष्ट हो गई। भागवत पुराण के अनुसार-“यह जगत् अनादि और अनन्त है। वर्तमान काल में विश्व जैसा . 55 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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