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________________ द्रव्य-विचार - तत्व, द्रव्य आदि शब्द एकार्थक अर्थात् पर्यायवाची हैं। द्रव्य का लक्षण तत्वार्थसूत्र के अनुसार इस प्रकार है-“सद् द्रव्य-लक्षणम्" अर्थात् द्रव्य का लक्षण सत् (अस्तित्व) है। सत् की परिभाषा यह है “उत्पाद-व्ययधौव्ययुक्तं सत् यह सत् स्वतः सिद्ध है / उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य युक्त है। द्रव्य में नवीन पर्याय की उत्पत्ति को उत्पाद कहते हैं। जैसे, मिट्टी की पिण्डपर्याय से घटपर्याय का उत्पाद / पूर्वपर्याय के नाश को व्यय कहते हैं। जैसे, घटपर्याय उत्पन्न होने पर पिण्डपर्याय का विनाश / पूर्वपर्याय का विनाश तथा नवीन पर्याय का उत्पाद होने पर भी सदा बने रहने वाले मूल स्वभाव को ध्रौव्य कहते हैं, जैसे पिण्ड तथा घट दोनों पर्यायों में मिट्टी का रहना। नवीन अवस्थाओं की उत्पत्ति तथा पुरानी अवस्थाओं (पर्यायों) का विनाश होते हुए भी द्रव्य अपने स्वभाव का कभी त्याग नहीं करता। अतः इसका न आदि है और न अन्त ही है। सदैव (तीनों कालों में) बने रहने के कारण ही यह सत् कहलाता है और सत् लक्षणवाला द्रव्य होता है। पदार्थ में यह नित्यता (प्रौव्यता) सामान्य स्वरूप की अपेक्षा ही होती है। विशेष पर्याय की अपेक्षा सभी द्रव्य अनित्य हैं, अतः संसार के समस्त पदार्थ नित्यानित्य रूप हैं। जैनागमों में द्रव्य का विवेचन करते हुए कहां गया है-"द्रव्य गुणों का आश्रय है. आधार है। जो द्रव्य के आश्रित रहते हैं वे गुण होते हैं। पर्यायों का लक्षण उन दोनों के अर्थात् द्रव्य और गुणों के आश्रित रहता है। अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है अर्थात् सत् सदा सत् ही रहता है और असत् सदा असत्-" "अत्यित्तं अत्थित्ते परिणमइ नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ // जैन दर्शन के अनुसार सत् सदैव स्थायी रहता है। द्रव्य की उत्पत्ति या विनाश नहीं होता। द्रव्य तो स्थायी होता है, मात्र उसकी पर्यायें (रूप) परिवर्तित होती रहती हैं। सत्-असत् की इस अवधारणा का उल्लेख गीता में भी है द्रव्य - विचार / 54
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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