________________ 4. चतुर्थ वर्ग में ऐतिहासिक पुराणों की गणना की गई है। जिसमें कलियुग के राजाओं का वर्णन विशेष रूप से इतिहास की दृष्टि को लक्ष्य में रखकर किया गया है। इस वर्ग में वायु तथा ब्रह्माण्ड पुराण समाविष्ट है। 5. पंचम वर्ग में साम्प्रदायिक पुराणों का अन्तर्भाव है। इसमें लिंग, वामन वाराह, कर्म तथा मत्स्य पुराण आते हैं जिनमें पाठों में अत्यधिक संशोधन होने से मूल पाठ रह ही नहीं गया है। पुराणों के देवता ___ वेदों में जिन अग्नि, इन्द्र, वरुण पूषा, सोम, उषा, पर्जन्य प्रभृति देवताओं का प्राधान्य था, पुराणों में उनका स्थान विष्णु, शिव, देवी कृष्ण आदि देवों ने ले लिया। प्रगतिशील पुराण प्रथाओं ने न केवल देवी-देवताओं की ही स्थापनाओं में प्रयत्न किया, अपितु आचार-विचार धर्म अनुष्ठान व्रत पूजा आदि कर्मक्षेत्र में भी बहुत सी नई मान्यताओं को जन्म दिया। पुराणों में कर्मकाण्ड को ही नहीं, ज्ञानयोग को भी पर्याप्त महत्व मिला है। पुराणों के प्रमुख विषय . सृष्टि से लेकर प्रलय पर्यन्त. समस्त क्रमबद्ध इतिहास के निर्देशक वैदिक धर्म के परिपोषक इन पुराणों में पुरातन आख्यानों का संकलन है। लगभग कई आख्यान प्रतीकात्मक हैं। उनकी प्रतीकात्मकता हम मार्कण्डेयपुराण के इस उदाहरण से समझ सकते हैं-मार्कण्डेयपुराण के अनुसार स्वारोचिष मन्वन्तर का राजा सुरथ कोलाविध्वंसी लोगों से पराजित होकर मेधाऋषि के आश्रम में गया, वहाँ परिवार से निष्कासित समाधिवैश्य भी आया। दोनों ने शांति तथा सुख के लिये मेधा की शरण ग्रहण की। ऋषि ने महामाया का स्वरूप बताकर मधुकैटभ, महिषासुर तथा शुभ निशुंभ का चरित्र और देवी माहात्म्य सुनाया। यह आख्यान प्रतीकात्मक है। सुरथ का अर्थ है-शरीरासक्त कर्मनिष्ठ (पुरुषशरीर रथमेवतु) तथा समाधि का अर्थ है (एकाग्रबुद्धि)। द्वन्दू और संघर्ष भरे जीवन में दोनों यथार्थ जगत् से भागकर अन्तर्मुख हो सुमेधा (सद्विचार) की शरण में जाते हैं, विचारशक्ति से उन्हें माया के विद्या-अविद्या रूप का ज्ञान होता है। दोनों तत्वचिंतन करते हैं। एक कर्ममार्ग में प्रवृत होता है, दूसरा ज्ञानमार्ग में। उपासना दोनों करते हैं। कर्ममार्गी उपासना से सुरथ को भोगसिदि मिलती है तथा ज्ञानमयी उपासना से समाधि को मोक्ष मिलता है। पुराणों के विषयवर्णन के अन्तर्गत पुराणों के जो पंचलक्षण बताये गये हैं, सर्वत्र मान्य परम्परा के अनुसार पुराणों के ये 5 लक्षण हैं'सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ___ 43 / पुराणों में जैन धर्म