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________________ प्रेरणा ऐक्य से वेदव्यास को प्रणेता माना जाता है। ऐसे अनेक ऋषियों के विषय में ब्रह्माण्ड पुराण में कहा गया है। संक्षिप्तत: व्यास का अर्थ यहाँ सम्पादक मात्र समझना चाहिए तथा विस्तारकता के रूप में भी व्यास (विस्तार) प्रयुक्त हो सकता है। पुराणों की वेदमूलकता (वेदों से सम्बन्ध) / पुराण वेदों को सरल तथा सरस भाषा एवं शैली में प्रतिपादित करते हैं। महाभारत में कहा गया है कि इतिहास और पुराणों के द्वारा ही वेदों का उपबृंहण अर्थात् व्याख्या करनी चाहिए। पद्मपुराण के मतानुसार जो ब्राह्मण अंगों एवं उपनिषदों सहित चारों वेदों का ज्ञान रखता है उससे भी बड़ा विद्वान वह है जो पुराणों का विशेष ज्ञाता हो।५२ . . __ याज्ञवल्क्यस्मृति के प्रमाण वचन से विद्या और धर्म विषय में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द एवं ज्योतिषरूप षड्वेदांग, पुराण न्याय, मीमांसा आदि दर्शन एवं धर्मशास्त्र के साथ वेद परम प्रमाण हैं।५३ वेदमूलक होने से पुराण के वेदों के समकक्षी होने का कथन कई स्थलों पर दृष्टिगोचर होता है यथा-अथर्ववेद संहिता का कथन है कि पुराण, ऋक्, यजु, साम, छन्द ये सभी एक साथ आविर्भूत हुए।५४ इसी प्राचीन अस्तित्व के कारण शतपथ ब्राह्मण में पुराणों को वेद ही कह दिया है।५ बृहदारण्यक ने नि:श्वासवत् वेद पुराणों का आविर्भाव लिखा है।६ अतः इन ग्रन्थों के प्रामाणिक विवेचन से पूराणों का वेद समसामयिकत्व या वेदमूलकत्व अथवा प्राचीनत्व सर्वथा समीचीन ही है। . * ब्रह्माण्डपुराण में तो यहाँ तक लिखा है कि सांगोपांग वेदों का अध्ययन करने पर भी जो पुराणज्ञान से शून्य है, वह तत्वज्ञ नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वेद का वास्तविक स्वरूप पुराणों में ही प्रदर्शित है।" उपर्युक्त सभी बातों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पुराणों में वेदार्थ का ही विशदीकरण किया गया है। वेदों में जो गूढ तत्व यत्र-तत्र वर्णित हैं, उन्हीं का आख्यानरूप में सर्वजन-ग्राह्य वर्णन पुराणों में उपलब्ध होता है। उदाहरणार्थ-कृष्णयजुर्वेद की शिक्षावल्ली में कहा है 'सत्यं वद' इसी को विस्तार रूप में स्मृतिकार ने लिखा है- 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्। .. प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्म: सनातनः' फिर पुराणों में सत्य पर अडिग हरिश्चन्द्रादि की मनोहर कथाओं द्वारा सत्यरूप धर्म का उपदेश दिया गया है। इस प्रकार 'सत्यं वद' विधि वाक्य की व्याख्या पूर्ण हो जाती है। . 41 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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