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________________ जो कमों के प्रयोग बताये गये हैं, वे प्रायः सकाम भाव से युक्त हैं। जो इन कामनाओं से मुक्त होता है, वही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। नाना प्रकार के कर्म मार्ग में सुख की इच्छा रखकर प्रवृत्त होने वाले मनुष्य परमात्मा को प्राप्त नहीं होता। ___श्रमण विचारधारा की आत्मविद्या ने कर्मकाण्ड को प्रभावित किया है। इसीलिये कालान्तर में बाह्य यज्ञों का स्थान आध्यात्मिक यज्ञों ने ग्रहण कर लिया, इसका उल्लेख आरण्यक काल में ही उपलब्ध हो जाता है। तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार-"ब्रह्म का साक्षात्कार पाने वाले विद्वान् संन्यासी के लिये यज्ञ का यजमान आत्मा है, अन्तकरण को श्रद्धा पली है, शरीर समिधा है, हृदय वेदि है, क्रोध पशु है, तप अग्नि है और दम दक्षिणा है। . प्रारम्भ में वैदिक संस्कृति का जो पुण्य प्राप्ति (शुभ) लक्ष्य था वह बाद में पुण्य-पाप से परे मुक्ति प्राप्त करना हो गया। इस प्रकार प्रवृत्ति के अन्तर्गत निवृत्ति का समावेश होने लगा। गृहस्थाश्रम के साथ ही संन्यासाश्रम भी महत्वपूर्ण हो गया। इसी प्रकार पशुबलि, जातिवाद इत्यादि का भी विरोध उपलब्ध होता है। अधिकांश परिवर्तन उनसे पूर्ववर्ती मान्यताओं का खण्डन ही करते हैं। यह बात नहीं है कि वैदिक परंपरा ही श्रमण परंपरा से प्रभावित हुई हो, श्रमण परंपरा भी वैदिक परंपरा से प्रभावित हुई है। मुख्यतः प्रभाव अग्रलिखित हैं-. "वैदिक कर्मकाण्ड अब तन्त्र-साधना के नये रूप में श्रमण परंपराओं में प्रविष्ट हो गया और उनकी साधना पद्धति का एक अंग बन गया। आध्यात्मिक विशुद्धि के लिये किया जाने वाला ध्यान अब भौतिकं सिद्धियों के निमित्त किया जाने लगा। अनेक देव-देवियाँ प्रकारान्तर से स्वीकार कर ली गई। जैन धर्म में यक्ष-यक्षियों एवं शासन देवता की अवधारणाएँ हिन्दू देवताओं का जैनीकरण मात्र हैं। वैदिक परंपरा के प्रभाव से जैन मंदिरों में भी अब यज्ञ होने लगे और पूजा में हिन्दू देवताओं की तरह 'वोर्थकरों का आह्वान एवं विसर्जन किया जाने लगा। डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा है-"(जैन परंपरा में) बहुत से हिन्दू देवता भी आ घुसे, यहाँ तक कि आज जैनियों में भी वैष्णव और अवैष्णव दो भिन्न विभाग पाये जाते हैं। 16 देश में बहुसंख्यक हिन्दुओं के सम्पर्कवश जैनियों में ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित अनेक रीति-रिवाज प्रचलित हो गये हैं। इनके अतिरिक्त भक्ति एवं योग के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। सारांशतया यह बात तो निश्चित है कि जो भी परिवर्तन हुआ, वह उसके मौलिक स्वरूप से भिन्न था। निष्कर्षतः जैन धर्म की प्राचीनता असंदिग्ध है। यद्यपि जैन' यह शब्द बहुत प्राचीन नहीं है, इससे पूर्व यह आर्हत धर्म, निम्रन्थ धर्म इत्यादि नाम से प्रचलित था। . 29 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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