SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्याद्वादो विद्यते यस्मिन्, पक्षपातो न विद्यते।। नास्त्यन्यपीडनं किंचिद् जैनधर्म: स उच्यते॥ अर्थात् जिसमें स्याद्वाद जैसा सिद्धान्त विद्यमान है, किसी भी प्रकार का पक्षपात नहीं है तथा किसी को भी पीड़ा पहुँचाना नहीं है, वह जैनधर्म कहा जाता द / वैदिक एवं श्रमण संस्कृति का पारस्परिक प्रभाव भारत की दो प्रसिद्ध संस्कृतियाँ हैं-बाह्मण संस्कृति (वैदिक) तथा श्रमण संस्कृति / वस्तुतः ये दोनों एक सम्प्रदाय विशेष न होकर मानव-जीवन की दो धाराएँ हैं जो प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के रूप में प्रवाहित होती रहती है। यहाँ इसका अर्थ एकान्ततः प्रवृत्ति या एकान्ततः निवृत्ति न होकर प्रवृत्ति-प्रधान तथा निवृत्ति-प्रधान है। “मानव का स्वाभाविक प्रवाह ही ऐसा है कि वह इन दोनों धाराओं में प्रवाहित होता है। कभी वह एक धारा को महत्व देता है तो कभी दूसरी को। सत्तारूप में दोनों धाराएँ उसमें मौजूद रहती हैं। जब तक कि वह मानवता के स्तर पर रहता है, उससे सर्वथा ऊपर नहीं उठ जाता अथवा नीचे नहीं गिर जाता, तब तक वह इन दोनों धाराओं में प्रवाहित होता ही रहता है।८. ये धाराएँ बहुत ही लम्बे समय से साथ-साथ एक ही धरातल पर प्रवाहित होने से परस्पर प्रभावित भी हुई हैं। परस्पर वैचारिक आदान-प्रदान के फलस्वरूप व्यावहारिक जीवन के आचार-विचारों की दृष्टि से दोनों संस्कृतियों में मौलिक भेद कर पाना प्रायः कठिन हो जाता है। अहिंसा परम धर्म है, रागद्वेषादि मनोविकारों पर विजय, संयम तथा शुद्ध आत्मतत्व की उपलब्धि से मुक्ति इत्यादि बातें दोनों संस्कृतियों में लगभग समान आदर एवं दृढ़ता के साथ स्वीकारी गई हैं। परन्तु इन दोनों परंपराओं के मौलिक विचारों को देखते हुए उनमें समाहित अन्य विरोधी विचार-अन्य संस्कृति का प्रभाव ही माना जा सकता है। वैदिक संस्कृति पर श्रमण संस्कृति का प्रभाव विंटर-नित्ज के मत में इस प्रकार है-“दार्शनिक-चिंतन ब्राह्मण युग के पश्चात् नहीं, पूर्व शुरू हो चुका था। ऋग्वेद में ही कुछ ऐसे सूक्त हैं जिनमें देवताओं और पुरोहितों की अद्भुत शक्ति में जनता के अन्धविश्वास के प्रति कुछ सन्देह स्पष्ट हो चुके हैं। भारत के इन प्रथम दार्शनिकों को उस युग के पुरोहितों में खोजना उचित न होगा। उपनिषदों में तो और कभी-कभी ब्राह्मणों में भी ऐसे कितने ही स्थल आते हैं, जहाँ दर्शन अनुचिन्तन के उस युगप्रवाह में क्षत्रियों की भारतीय संस्कृति को देन स्वतः सिद्ध हो जाती है।" महाभारत शान्तिपर्व में वैदिक परम्पराओं का विरोध करते हुए पिता-पुत्र-संवाद में निवृत्तिपरायणता स्पष्ट दिखाई देती है। इसमें मनु द्वारा कहा गया है कि वेद में जैन धर्म का इतिहास / 28
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy