________________ . शांकर दर्शन में सत् को नित्य मानकर उसके परिणाम को आभास बताया है। किन्तु जैन दर्शन में वर्णित सत् इन दोनों के बीच समन्वय प्रस्तुत करते हुए द्रव्य को उत्पाद, व्यय तथा धौव्ययुक्त बताता है-उत्पाद-व्ययधौव्य-युक्तं सत् 5 उसमें उत्पत्ति-विनाश की प्रक्रिया के चलते हुए भी वह ध्रुव है, नित्य है। सत् का अर्थ यहाँ मात्र. कूटस्थ नित्य सत्ता न होकर तद्भावाव्यय (जो अपने भाव को कभी नहीं छोड़ता है) है। .. वस्तु (सत्) त्रयात्मक है क्योंकि जो सत् न हो और फिर भी पदार्थ हो, यह परस्पर विरुद्ध बात है। जो सर्वथा असत् है वह सत्ता के सम्बन्ध से भी सत् नहीं हो सकता, जैसे आकाश पुष्प। सत्, असत् के अतिरिक्त ऐसी कोई कोटि नहीं जिसमें पदार्थ रखा जा सके। - प्रत्येक पदार्थ (सत्) सामान्य-विशेषात्मक है, भेदाभेदात्मक अथवा नित्यानित्यात्मक है। क्योंकि कोई भी ‘सामान्य' विशेष के बिना नहीं मिलता तथा कोई भी 'विशेष' सामान्य के बिना उपलब्ध नहीं होता। अतः द्रव्य सामान्य तथा विशेष दोनों का समन्वय है। वह द्रव्य दृष्टि से शाश्वत, नित्य तथा अभेदमूलक है किन्तु पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत, अनित्य एवं भेदमूलक है। द्रव्य का वर्गीकरण मुख्यतया इस प्रकार से हो सकता है द्रव्य अजीव . रूपी अरूपी .. पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश, काल द्रव्य अस्तिकाय अनस्तिकाय धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, जीव / काल साधना मार्ग भारतीय संस्कृति के अनुसार साधना का महत्व इतना है कि उसके बल पर मानव के सामने देव-दानवादि समस्त संसार नतमस्तक हो जाता है। मोक्ष-प्राप्ति में सहायक साधनों के विषय में विभिन्न दर्शनों ने अनेक मन्तव्य रखे। किसी ने ज्ञान जैन धर्म का इतिहास / 26 .