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________________ लिखा है, उन सबमें उन्होंने नरमेध, अश्वमेध, पशुबलि और मांसाहार को लोक विरुद्ध होने से त्याज्य ठहराया है। अनेकान्त भारतीय दर्शन को जैन दर्शन की अमूल्य देन है, अनेकान्तवाद। उस अनेकान्तमयी दृष्टि को जिस भाषा पद्धति द्वारा व्यक्त किया जाता है, वह स्याद्वाद कहलाता है। एकान्तदृष्टि, हठाग्रह को स्थान न देकर नवीनता, सत्यता को ग्रहण करने हेतु अनेकान्तवाद एक ऐसी दृष्टि प्रदान करता है जिससे अधिकांश विवादों का समाधान सहब ही हो सकता है। इसके अभाव में कभी भी सत्य का दर्शन सम्भव नहीं है। अनेकान्तवाद का सिद्धान्त हमें वैचारिक सहिष्णुता प्रदान करके दूसरों के विचारों का सम्मान करना सिखाता है तथा यह बोध कराता है कि सत्य हमारी निजी सम्पत्ति नहीं है, प्रत्युत यह दूसरों के पास भी हो सकता है। जैन दर्शन के अनुसार सत्य के अनेक पक्ष हैं (अनन्तधर्मात्मक वस्तु)। वैचारिक असहिष्णुता, हठाग्रह सत्य प्राप्ति में बाधक हैं। सूत्रकृतांग सूत्र में एकान्तवाद का निषेध करते हुए कहा है कि-"अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरों के मत की निन्दा करने में ही अपना पाण्डित्य दिखाते हैं और लोक को सत्य से भटकाते हैं, वे एकान्तवादी स्वयं संसार चक्र में भटकते रहते हैं। जो श्रमण और ब्राह्मण-अपने दर्शन के अनुसार जीवन धारण करता है उसी को मोक्ष की प्राप्ति होगी, अन्य दर्शन के अनुसार जीवन धारण करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी, ऐसा कहने वाले एकान्त जीवन-दर्शन की मैं निन्दा करता हूँ। 83 अनेकान्त की परिभाषा यह है ‘अर्थोड्नेकान्तः अनेके अन्ताः अनुवृत्तव्यावृत्त प्रत्ययगोचरा: सामान्य-विशेषदयो धर्माः यस्य सोऽनेकान्तः४ तात्पर्य यह है कि कोई भी वस्तु मात्र एक धर्मात्मक न होकर अनन्तधर्मात्मक होती है। अनेकान्त नयों पर आधारित है। किसी एक अपेक्षा से वस्तु के एक ही धर्म को जाना जा सकता है, सभी को नहीं। यथा आत्मा को समझने के लिये उसके नित्यत्व-अनित्यत्व, .एकत्व-अनेकत्व, भिन्नत्व-अभिन्नत्व इत्यादि अनेक धर्मों को समझना जरूरी है। मात्र एक ही दृष्टि परं निर्धारित निर्णय पूर्ण सत्य नहीं होता। जब तक उसके सम्पूर्ण पक्षों पर विविध दृष्टियों से विचार नहीं किया जाता है, तब तक सत्य अपूर्ण ही रहता है। इस सत्यता का दिग्दर्शन अनेकान्तवाद द्वारा ही हो सकता है। द्रव्य . द्रव्य के सम्बन्ध में जैन दर्शन की अनेकान्तिक विशिष्ट अवधारणा है। बौद्ध दर्शन में द्रव्य (सत्) को क्षणिक बताया तथा इसके विपरीत शांकर दर्शन में वह नित्य है। बौद्ध दर्शन में सत् को क्षणिक मानकर नित्यत्व को आभास कहा है जबकि 25 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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