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________________ जैनाचार्यों के अनुसार-मात्र प्राण-व्यवरोपण अर्थात् दूसरों के प्राणों का हरण करना ही हिंसा नहीं है, बल्कि हिंसा की परिभाषा यह है- . _ 'प्रमत्तयोगाटाणव्यवरोपणं हिंसा'। अर्थात् प्रमाद के कारण प्राणों का जो हनन होता है, वह हिंसा है। आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है-अपने शुद्धोपयोगरूप प्राण का पात रागादि भावों से होता है, अतएव रागादिक भावों का अभाव ही अहिंसा है और शुद्धोपयोगरूप प्राणघात होने से उन्हीं रागादिक भावों का सद्भाव हिंसा है। कषाय से अपने-परके, भावप्राण तथा द्रव्यप्राण का घात करना यह हिंसा का लक्षण है। - अहिंसा के सन्दर्भ में 'आत्मवत्सर्वभूतेषु' का चिन्तन प्रस्तुत करते हुए लिखा है जिस हिंसक व्यापार को तुम अपने लिये पसंद नहीं करते, उसे दूसरा भी पसंद नहीं करता। जिस अच्छे व्यवहार को तुम पसंद करते हो, उसे सभी पसंद करते हैं। ___ अहिंसा के अन्तर्गत सभी सद्गुण आ जाते हैं। अहिंसा का परिपालन करने वाले व्यक्ति के लिये अनासक्ति तथा त्यागवृत्ति भी आवश्यक होती है, तभी अहिंसा का सम्यक् रूपेण पालन हो सकता है। स्थूल दृष्टि से अहिंसा आचार पक्ष से सम्बन्धित लगती है परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर ज्ञात होता है कि इसका सम्बन्ध विचार पक्ष से भी उतना ही है। यथार्थ रूप से राग आदि उत्पन्न न होना ही अहिंसा है और इनका उत्पन्न होना हिंसा है। यदि व्यक्ति का स्व-विवेक, अन्तर्दृष्टि नहीं हो तो वह अहिंसा का गहन तथ्य नहीं समझ सकता है तथा ज्ञान के अभाव में सम्यक् आचार . (चारित्र) की उपलब्धि भी नहीं होती। ___ अनाग्रह या अनेकान्त का सिद्धान्त वैचारिक अहिंसा है। वास्तव में अहिंसा और अनेकान्त इन दो शब्दों में समग्र श्रमण परंपरा का सार आ जाता है। अनेकान्त को भली-भांति समझे बिना और व्यवहार में लाये बिना अहिंसा नितान्त अधूरी और लंगड़ी रहती है। वस्तुतः अहिंसा का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि उसके अन्तर्गत-सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इत्यादि निवृत्तिमूलक आचार तथा दया, अनुकम्पा, अभय, क्षमा, समत्व, संयम, तप आदि प्रवृत्तियाँ विवेक, अनेकान्त आदि विचारात्मक प्रवृत्तियाँ भी समाहित हो जाती हैं। ज्ञानी होने का सार हिंसा नहीं करना ही नहीं है, अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है। इस प्रकार जैन धर्म में अहिंसा परम मूल्य है। अन्य सभी मूल्य अहिंसा से ही निगमित होते हैं। जैन धर्म की अहिंसा का प्रभाव निम्नोक्त कथन से स्पष्ट होता है-“यह अहिंसा धर्म लोगों के जीवन में उतरते-उतरते इतना गहरा घर कर गया है कि इसके विरुद्ध चलने से सभी को लोक निन्दा का भय होने लगा। इसी कारण से महावीर के उत्तरकाल में हिन्दू स्मृतिकारों और पुराणकारों ने जितना आचार सम्बन्धी साहित्य जैन धर्म का इतिहास / 24
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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