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________________ आ जाते हैं। तीर्थकर का अर्थ है-तीर्थ के स्थापक; जिसके द्वारा संसाररूप मोह-माया का नद सुविधापूर्वक तिरा जाये; वह धर्मतीर्थ कहलाता है तथा उस धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले.तीर्थकर कहलाते हैं। . सिद्ध अरिहंत ही शेष अघातिकमों को क्षय करने के पश्चात् सिद्ध कहलाते हैं। आचार्य सत्पुरुषों द्वारा किया जाने वाला व्यवहार अथवा आचरण करने योग्य या आदरने योग्य व्यवहार आचार कहलाता है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्य इन पंचाचारों को स्वयं पालन करने वाले और दूसरों से पालन करवाने वाले मुनिराज आचार्य कहलाते हैं। उपाध्याय __जो गुरु वगैरह गीतार्थ महात्माओं के पास सर्वदा रहते हैं, जो शुभयोग तथा उपधान (तपश्चरण) धारण करके मधुर वचनों से सम्पूर्ण शाखों का अभ्यास करके पारंगत हुए हैं और जो अनेक साधुओं एवं गृहस्थों को पात्र-अपात्र की परीक्षा करके यथायोग्य ज्ञान का अभ्यास कराते हैं, ऐसे साधु उपाध्याय कहलाते साधु बैसे मंत्रवादी अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिये उसी ओर सम्पूर्ण लक्ष्य देकर, आने वाले विविध उपसर्गों को पूर्ण दृढ़ता के साथ सहन करता है, इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने आत्मा की विशुद्धि करने के लिये उसी ओर ध्यान एकाग्र करके अर्थात् एकमात्र मोक्ष के लिये ही आत्मा का साधनकरता है, उसे साधु कहते हैं।" उपर्युक्त पाँचों परमेष्ठियों में कोई भी पद व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित न होकर गुणों पर ही आधारित है। वस्तुतः जैन धर्म व्यक्ति पूजक न होकर, गुण पूजक है। ... जैन धर्म की प्रमुख विशेषताएँ अग्रलिखित हैं अहिंसा, अनेकान्तवाद, द्रव्य, साधना मार्ग। अहिंसा यद्यपि सभी धर्मों में अहिंसा मान्य है, परन्तु जैन धर्म में अहिंसा का विशिष्ट तथा सूक्ष्मरूप व्याख्यात है। धर्म का केन्द्र बिन्दु अहिंसा को बताया है। अन्य समस्त आचार उसी को उद्देश्य करके निर्धारित किये गये हैं। 23 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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