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________________ . ही नहीं प्रशाखाएँ भी निकलती गई। अनेक प्रकार के चढ़ाव-उतार आते गये-इन अर्वाचीन-कालीन विभिन्न शाखाओं में यद्यपि कुछ मान्यताओं में वैभिन्य हैं, फिर भी मौलिक सैद्धान्तिक धरातल सबका एक ही है। उन सिद्धांतों का समर्थन ही नहीं, उनके निरूपण-प्रचार के लिये आचार्य हरिभद्र, सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंक, हेमचन्द्र, उमास्वाति प्रभृति महान् विद्वानों ने बड़े-बड़े ग्रंथों की रचना करके घटते जा रहे जैन साहित्य भण्डार को सर्वांगता दी है। दार्शनिक काल में इन अनेक आचायों ने दर्शन से सम्बन्धित विविध ग्रंथों की रचना की। प्रत्येक तीर्थकर, गणधर, आचार्यादि जैन परम्परा के विशिष्ट पुरुषों के जीवन-प्रसंग यहाँ विस्तारभय से नहीं दिये जा रहे हैं। जैनधर्म की विशिष्टताएँ जिस प्रकार बुद्ध के अनुयायी बौद्ध, शिव को मानने वाले शैव कहलाते हैं, उसी प्रकार 'जिन' के अनुयायी जैन कहलाते हैं जिन द्वारा प्रवर्तित मार्ग पर चलने वाले, उनका अनुसरण करने वाले एवं जिनत्व की प्राप्ति में प्रयत्नशील 'जैन' कहलाते हैं तथा 'जिन' द्वारा उपदिष्ट होने से यह जैन धर्म कहलाता है। इसे आहेत धर्म, वीतराग धर्म भी कहा जाता है। 'जिन' शब्द की निरुक्ति के अनुसार इसका तात्पर्य यह है जिन्होंने राग-द्वेष-मोहादि अंतरंग रिपुओं पर विजय प्राप्त कर ली है, वे जिन हैं-'जयति निराकरोति राग-द्वेषादि-रूपानरातीनिति जिनः६९ उनके लिये कुछ भी जीतना शेष नहीं रहता, क्योंकि जिनके अंतरंग विकार नष्ट हो जाते हैं, इसलिए उनके मन में किसी के भी प्रति शत्रुत्व अथवा मित्रत्व का भाव नहीं रहता और बाह्य-जगत में भी उनका कोई शत्रु आदि शेष नहीं रहता। अंतरंग विकारों (रागद्वेषादि) का अभाव होने से उनके वचन भी सत्य (यथार्थ) होते हैं, क्योंकि जिनमें ये दोष नहीं हैं, उनके अनृत बोलने का कारण क्या हो सकता है अर्थात् कुछ भी नहीं। जैन संस्कृति किसी भी व्यक्ति विशिष्ट से सम्बद्ध नहीं है। यह इसके महामंत्र से ही स्पष्ट हो जाता है। इस महामंत्र में इन पंच परमेष्ठी (सर्वोत्कृष्ट, लोकपूज्य) को नमस्कार किया गया-१ अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु / इसमें देवतत्व (भगवत्तत्व) तथा गुरुत्व दोनों ही समाहित हैं। परमेष्ठी का अर्थ परम पद पर स्थित होने वाले हैं-'परमे पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी' / वैदिक साहित्य में भी परम पद प्राप्त अर्थात् परम पद पर स्थित, पूजनीय, वंदनीय, आदरणीय, आचरणीय है उसी पद पर परमेष्ठी की श्रद्धा केन्द्रित हुई है।७२ अरिहंत और सिद्ध ये साधना की पूर्ण अवस्थाएँ हैं। अरिहन्त 'अर्ह' पूजायाम् धातु से बनने वाले अर्हन्त शब्द का अर्थ पूज्य है। अरि कर्मशत्रु का हनन करने वाला अरिहंत है। तीर्थकर भी अरिहंत पद के अन्तर्गत जैन धर्म का इतिहास / 22 .
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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