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________________ इस प्रकार पुराणों में जैन धर्म का बहुत वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त पुराणों में वर्णित अहिंसादि कई सिद्धान्त भी जैन धर्म से साम्य रखते हैं। जैन परम्परानुसार जैनधर्म का इतिहास . वस्तुतः धर्म का कोई स्वतन्त्र इतिहास नहीं होता, परन्तु उस धर्म को धारण करने वाले के आधार पर ही उसका इतिहास लिखा जा सकता है। इसकी आदि के सम्बन्ध में तो यही कहा जा सकता है कि जैन धर्म तभी से प्रवर्तमान है, जब से मनुष्य है, और जब से मनुष्य में विकास है।६८. इस युग में जैन धर्म का प्रारम्भ भगवान् ऋषभदेव के द्वारा हुआ यह एक सर्वसम्मत तथ्य है। ऋषभदेव का काल इतना प्राचीन है कि उस समय में किसी भी प्रकार की अन्य सामाजिक अथवा धार्मिक व्यवस्थाएँ नहीं थीं। इसी से हम इसकी प्राचीनता का अनुमान लगा सकते हैं। इसकी. प्राचीनता के सम्बन्ध में हम यह कह सकते हैं कि यह धर्म इतना प्राचीन है कि प्राचीनतम ग्रन्थों अथवा अवशेषों आदि में इसका उल्लेख अवश्य पाया जाता है अर्थात् जिन्हें प्राचीन से प्राचीन ग्रंथ माना जाता है, उनमें इसके प्रमाण मिल जाते हैं। जैनधर्म के मुख्य प्रचारक : तीर्थंकर तीर्थंकर जैन धर्म का एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है-धर्मसंघ रूपी (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका) तीर्थ की स्थापना करने वाले / यहाँ यह विशेष बात है कि जैन परंपरा, वैदिक परंपरा की तरह तीर्थंकरों को 'अवतार' नहीं मानती। अवतारवाद के अनुसार ईश्वरीय स्थिति से नीचे उतरना सूचित होता है। जो भी महापुरुष अथवा विशिष्ट पुरुष होते हैं, उन्हें वैदिक परंपरा में अवतार मान लिया गया है। जबकि जैन मान्यता के अनुसार तीर्थंकरों या महापुरुषों की आत्मा ऊर्ध्वमुखी होता है। वे ईश्वर से मनुष्य न बनकर मानव से ईश्वर बनते हैं। - जैन परंपरा के अनुसार प्रत्येक युग (उत्सर्पिणी या अवसर्पिणी काल) में चौबेस तीर्थंकर होते हैं। वर्तमान युग के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे तथा अन्तिम तीर्थंक. महावीर (वर्धमान) थे। अन्य तीर्थंकरों का वर्णन भगवती आदि सूत्रों में पाया जाता है। महावीर के समय में कई दर्शन विद्यमान थे। इन सभी के बीच उन्होंने जैन दर्शन का निरूपण किया तथा तत्कालीन कई अयुक्तियुक्त मान्यताओं का खण्डन किया। उनके उपदेशों को गणधरों तथा आचार्यों ने संकलन करके आगम रूप में प्रतिष्ठित किया। उनके पश्चात् उनके उत्तराधिकारी आर्य सुधर्मा बने। इसी प्रकार जम्बूस्वामी प्रभवस्वामी आदि परंपरा चलती गई। महावीर के समय में भी सचेलक-अचेलक दोनों प्रकार के . साधुओं का उल्लेख है। पश्चात्कालीन परंपरा में ज्ञान की अल्पता होती गई। शाखाएँ . .. 21 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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