________________ हुए पशु से जो स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा की जाती है, यदि ऐसा है तो यजमान के द्वारा वहाँ अपने पिता का वध क्यों नहीं किया जाता है। यदि अन्य के द्वारा खाये हुए से पितृगण की तृप्ति होती है तो प्रवास में रहने वाले को भी श्राद्ध दिये जाने से वह प्रवासी भी उसे प्राप्त कर तृप्त हो जाना चाहिए। वहाँ पर अनेक यज्ञों से देवत्व को प्राप्त करके इन्द्र के द्वारा स्वर्ग का भोग किया जाता है। शमी आदि यदि काष्ठ है तो उससे श्रेष्ठ तो पत्तों को खाने वाला पशु है। ये सब बातें लोगों को श्रद्धा के योग्य नहीं हैं। इससे आगे दीक्षित होकर केश लंचन का चौबीस तीर्थकर एवं पंचांग मंत्र (परमेष्ठी नमस्कार मंत्र) के उल्लेखपूर्वक यह मनोरथ व्यक्त किया गया है-“पंचांग मंत्र जपते हुए (हम) विरागी और अमर्षय होकर कब सूर्य की अग्नि के समान तेज वाले हों, उस प्रकार से तप करने वाले काल के पर्यय से मृत्यु प्राप्त होने पर कर्मों का कब पाषाण से सिर का भग्न होगा। हम लोगों का वन में जहाँ कोई भी नहीं रहता हो, कब निवास होगा और श्रावक होकर परम सावधान होते हुए कब जाप करेंगे।६४ पालक द्वारा वेन को आर्हत धर्म के सिद्धान्त इस प्रकार से बताये गये कि इस धर्म में अर्हन्त देवता, निम्रन्थ गुरु तथा दया करना ही सबसे बड़ा धर्म है, यजन करना कराना, वेदाध्ययन, संध्योपासना, स्वधा, स्वाहा, हव्य-कव्य प्रभृति का निषेध होता है तथा श्राद्ध तर्पण बलि वैश्वानार आदि भी नहीं होते हैं। इसमें मात्र लक्षण पूजन ही परम प्रधान अर्चना है तथा अर्हन्त का ध्यान ही सर्वोत्तम ध्यान माना है। वस्तुतः जहाँ दया की कमी होती है, वहाँ तो चपलता ही होती है, धर्म नहीं होता। वे वेद जो कहे जाते हैं, वेद नहीं हैं, जिनमें दया का विधान नहीं है। जो दया और दान से परायण होता हुआ जीवों की रक्षा किया करता है, चाहे वे शूद्र हों या चाण्डाल भी क्यों न हो. वही ब्राह्मण कहा जाता है तथा आगे तीर्थ के सम्बन्ध में लिखा है-यदि जलाशयों में स्नान करने से ही महान् पुण्य होता है तो फिर मत्स्यों में सबसे अधिक उसका पुण्य क्यों नहीं माना जाता है।६५ उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि आर्हतों की जीवनचर्या तथा विचारधारा कैसी थी। वे प्रवृत्ति मार्गी न होकर निवृत्ति मार्गी थे, जिसका (निवृत्ति मार्ग का) पुराणों में कई स्थलों पर समर्थन अभिव्यक्त होता है / यद्यपि यहाँ माया-मोह को इसका उपदेष्टा बताया है जबकि ज्यादातर ऋषभदेव को ही जैन धर्म का प्रवर्तक कहा गया है। इसी प्रकार से विष्णु पुराण में भी आर्हतधर्म का उल्लेख है। उसमें दिगम्बर तथा साम्बरों (श्वेताम्बरों) का भी उल्लेख है।६६ मत्स्य पुराण के रजि के वृतान्त के अनुसार-“बृहस्पति द्वारा प्रणीत इस शास्त्र को. 'जिन धर्म' कहा गया है। यह हेतुवाद पर आश्रित माना गया है। जैन धर्म का इतिहास / 20