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________________ ऋग्वेद में ऋषभदेव की स्तुति करते हुए ऋषि द्वारा कहा गया है कि “आत्मदृष्टा प्रभो! परम सुख प्राप्त करने के लिये हम आपकी शरण में आना चाहते हैं।"३४ अथर्ववेद में मानवों को ऋषभदेव के आह्वान हेतु प्रेरित करते हुए लिखा है-“हे सहचर बंधुओ ! तुम आत्मीय श्रद्धा द्वारा उसके आत्मबल और तेज को धारण करो।"३५ जिस प्रकार से जैन परम्परा में ऋषभदेव द्वारा तत्कालीन जनता को अग्नि आदि के बारे में ज्ञान देने वाला तथा अन्नादि द्वारा उनका पोषण करने का उल्लेख है, वैसे ही उसी आशय को व्यक्त करते हुए कहा गया है-“रक्षा करने वाला, सभी को अपने भीतर रखने वाला, स्थिर स्वभावी, अन्नवान् ऋषभ संसार के उदर का परिपोषण करता है। इस दाता ऋषभ को परमैश्वर्य के लिये विद्वानों के जाने योग्य मार्गों से बड़े ज्ञान वाला, अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष प्राप्त करे।३६ वैदिक ऋषियों ने विविध प्रतीकों द्वारा भी उनकी स्तुति की है। जैन परंपरा के अनुसार ऋषभदेव केश रखने के कारण केशी, केशरी अथवा केशरिया कहलाये, जैसे सिंह अपने केशों के कारण केशरी कहलाता है। इस केशी नाम से भी ऋषभदेव की स्तुति वेदों में की गई है। ऋग्वेद में वातरशना मुनि के प्रसंग से स्पष्ट होता है कि केशी ऋषभदेव ही थे। वहाँ ऋषभ की स्तुति केशी रूप में की गई है। ब्रह्मा द्वारा की गई वर्ण व्यवस्था की तुलना में हम जैन परम्परा में वर्णित ऋषभदेव द्वारा आजीविका को व्यवस्थित करने हेतु की गई वर्ण स्थापना को देख सकते हैं। इसी प्रकार जाज्वल्यमान अग्नि, परमेश्वर, रूद्र आदि रूपों में भी ऋषभदेव संस्तुत है।३९ पुराणों में ऋषभदेव पुराणों में ऋषभदेव का विस्तृत वर्णन है। भागवतादि पुराणों में उनका जीवन चरित अंकित है। उनमें प्रियव्रत, आग्नीध्र, नाभि तथा वृषभ इन पाँचों पीढ़ियों की वंश परंपरा का वर्णन करते हुए लिखा है कि ऋषियों द्वारा प्रसन्न किये जाने पर विष्णुदत्त परीक्षित स्वयं श्री भगवान् विष्णु महाराज नाभि का प्रिय करने के लिये उनके अन्त:पुर की महारानी मरूदेवी के गर्भ में आये, वरदान के फलस्वरूप उन्होंने ऋषभ के रूप में जन्म लिया। उन्होंने इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से ग्रहण किया।° ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए। बड़े पुत्र भरत का राज्याभिषेक करके वे संन्यासी (योगी) बन गये। उस समय केवल शरीर मात्र उनके पास था और नग्न विचरण करते थे, मौन रहते थे। कोई डराये, मारे, पत्थर फेंके अर्थात् कुछ भी करे, वे इन सबकी ओर ध्यान नहीं देते थे। यह शरीर असत् पदार्थों का घर है, ऐसा समझकर अहंकार, ममत्व का त्याग करके अकेले भ्रमण करते थे। उनका कामदेव के समान सुन्दर शरीर मलीन हो गया था। उनका क्रिया-कर्म बड़ा भयानक था। 15 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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