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________________ आराधक थे, जिनका विश्वास आत्मकल्याण एवं आत्मविशुद्धि में था।२६ यह परम्परा भी बहुत सम्भवतः सिंधु घाटी की सभ्यता के निर्माताओं की तरह, श्रमण संस्कृति की अनुयायी थी। व्रात्य के सम्बन्ध में यह भी कहा गया है “लिच्छवी लोग व्रात्य अथवा अब्राह्मण क्षत्रिय कहलाते थे। उनकी प्रजातंत्ररूप शासन पद्धति थी। उनके देवस्थान पृथक् थे। उनकी पूजा अवैदिक थी। उनके धर्मगुरु पृथक् थे। वे जैन धर्म का संरक्षण करते थे।"२८. वातरशना मुनि वातरशना मुनि का उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है। अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशना सुनि मल धारण करते हैं जिससे पिंगल वर्ण वाले दिखाई देते हैं। जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं अर्थात् रोक देते हैं तब वे अपने तप द्वारा दीप्तिमान होकर देवतास्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। सार्वलौकिक व्यवहार को छोड़कर वे मौनेय की अनुभूति में कहते हैं कि “मुनिभाव से प्रमुदित हम वायुभाव में स्थित हो गये। मयों तुम हमारा शरीर मात्र देखते हो।२९ . वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म को नाभि तथा मरूदेवी के पुत्र ऋषभदेव ने प्रारम्भ किया। इसका उल्लेख श्रीमद्भागवत पुराण में दृष्टिगत होता है, जिससे यह भी श्रमण संस्कृति से सम्बन्धित ज्ञात होता है। तेत्तिरीयारण्यक में ऋग्वेद के 'मुनयोः वातरशना' को श्रमण ही बताया है तथा भगवान् ऋषभदेव के शिष्यों को वातरशन ऋषि और ऊर्ध्वमंथी कहा है। आरण्यक में वातरशना एवं श्रमण तथा उपनिषद में तापस एवं श्रमणों का एकीकरण भी उल्लिखित है।" ऋग्वेद के वातरशना मुनि श्रमण अथवा यति हैं, जिनमें तपस्या एवं योग का महत्व था। श्रमण संस्कृति में वैदिक यज्ञादि का विरोध था तथा योग का महत्व था। वैदिक धर्म के विरुद्ध होने से इसके लिये दास, दस्यु, असुर आदि शब्द प्रयुक्त किये गये। “ये दास दस्यु पुर में रहते थे और उनके पुरों का नाश करके आर्यों के मुखिया इन्द्र ने पुरन्दर की पदवी को प्राप्त किया। उसी इन्द्र ने यतियों और मुनियों की भी हत्या की / "32 इस उल्लेख से यह स्पष्ट होता है कि श्रमण और ब्राह्मणों का शाश्वतिक विरोध है। सम्भव है ये मुनि, यति शब्द उन मूल भारत के निवासियों की संस्कृति के सूचक हैं। यदि जैन धर्म का पुराना नाम यति धर्म या मुनि धर्म माना जाये तो इसमें आपत्ति की बात न होगी। ऋषभदेव ऋषभदेव को न केवल जैनधर्म में ही बल्कि वैदिक संस्कृति में भी उपास्य माना है। अनेक स्थलों पर उनकी गौरवगाथा वैदिक साहित्य में प्रस्फुटित हुई है। जैन धर्म का इतिहास / 14 .
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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