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________________ पूर्वोक्त पुराणों के मन्तव्य के तुल्य मनुष्य-जन्म की दुर्लभता बताते हुए जैनागमों में यही प्रतिपादित किया है कि मनुष्यत्व, शास्र श्रवण, धर्म में श्रद्धा तथा संयम में पुरुषार्थ-इन चार अंगों की प्राप्ति बहुत दुर्लभ है। देवलोक में देवता भी निम्नलिखित बातों की सदा इच्छा किया करते हैं-मनुष्य योनि प्राप्त करना, आर्यक्षेत्र में जन्म लेना तथा श्रेष्ठकुल में उत्पन्न होना। देव भले ही मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली और समृद्ध हों, पर धर्म का पालन कर मनुष्य ही आत्मा से परमात्मा बन सकता है। यह क्षमता मानव में ही है, अतः देवत्व से मानव-जीवन को ही श्रेष्ठ माना है। महर्षि वेदव्यास का महाभारत में कथन है कि मैं तुम लोगों के समक्ष एक गुप्तसत्य की अभिव्यक्ति दे रहा हूँ। वह यह है कि सारी सृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठतर न तो कोई वस्तु है और न ही कोई प्राणी ही गुह्यं ब्रह्म तदिदं वो ब्रवीमि, . न मानुषाच्छ्रेष्ठतरं हि किंचित् / / देव 'देव' शब्द की व्याख्या इस प्रकार से की गई है-“दीव्यन्ति यथेच्छ निरुपमक्रीडामनुभवन्तीति देवा”, “दीव्यन्ति यथेच्छं क्रीडन्तीति देवाः"."दीव्यन्ति स्वरूपे इति देवाः। तात्पर्य यह है कि देवता विशेष पुण्यराशि से युक्त होने से शुभ पुद्गलों (द्युति) वाले होते हैं। वे देवगति आदि कर्मों से उस पर्याय को प्राप्त करते हैं। उनकी स्थितियाँ (आयुष्य) भी प्रत्येक की भिन्न-भिन्न है। आयुष्य की समाप्ति के बाद उन्हें पुनः इसी धरातल पर आना पड़ता है, क्योंकि वे भी कर्मों से बद्ध संसारी प्राणी हैं, जन्म-मरण करने वाले हैं, मुक्त नहीं हैं; इसीलिए मुमुक्षुओं के लिए उन देवताओं को उपास्य नहीं माना गया है। मुक्त होने के लिए तो मोक्षमार्ग बताने तथा स्वयं मुक्त होने वाले देवाधिदेव (अरिहंत, सिद्ध) को ही आराध्य एवं अनुकरणीय बताया है। पुराणों में भी देवताओं का वर्णन करते हुए देव, देवियों, विद्याधर, यक्ष, गुह्यक, अप्सरा आदि देव योनियों की अनेक कथाएँ हैं। “देव देवने, देवि प्रीणने, दिवु क्रीडाविजिगीषा-व्यवहार-द्युति-मोद-मदस्वप्रकान्तिगतिषु, दिवु परिकूजने” इत्यादि से निर्मित देवता शब्द में इनके अर्थ–प्रसन्न करना, प्रकाश करना, खोलना, विजय की इच्छा सन्निहित है। महर्षि यास्क के अनुसार “देवता” शब्द का निर्वचन इस प्रकार है “देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतानाद्वा / " “घुस्थानो भवतीति वा यो देवः सा देवता"L अर्थात् दातृत्वशक्ति से युक्त दीपन और द्योतन करने वाले को देव कहा जाता है अथवा धुलोक में रहने के कारण भी देव कहा जा सकता है। जगत् - विचार / 240
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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