________________ जैन ग्रन्थों में जिस प्रकार देवों को वैक्रियक शरीरयुक्त होने से रूपपरिवर्तन, अदृश्य तथा प्रगट होना आदि की शक्तियुक्त बताया है, वैसे ही पुराणों में देवताओं के शरीर दिव्य, शुद्ध बताये गये हैं एवं उनके शरीर में मल-मूत्र-पसीनादि नहीं होता। वे कहीं भी एक क्षण में जा सकते हैं, विभिन्नरूप बना सकते हैं तथा पुराणों से यह भी स्पष्ट होता है कि देवलोक में कोई देवता स्थायी नहीं है। एक अवधि तक ही वे वहाँ रहते हैं। जब उनकी आयुष्य की स्थिति पूर्ण हो जाती है तो उन्हें भी जन्मान्तर में जाना पड़ता है। कर्मों से बद्ध होने के कारण उनका भी संसार में संसरण (आवागमन) अन्य प्राणियों के समान चलता रहता है। उनके आयुष्य की अवधियाँ भले ही लम्बी हों, परन्तु वे अमर नहीं हैं। इस प्रकार से देव, मनुष्य तिर्यंच, नरक इन चार गतियों में जीवों का आवागमन चलता रहता है। जिनका यह आवागमन बन्द हो जाता है, वे जीव मुक्त कहलाते हैं। लोक-संस्थिति वस्तुतः जीव एवं अजीव का संयोग ही संसार है। लोक की संस्थिति जैनागमों के अनुसार इस प्रकार है-५० 1. आकाश के आधार पर वायु है। 2. वायु के आधार पर जल है। . 3. जल के आधार पर पृथ्वी है। . 4. पृथ्वी पर त्रस-स्थावर जीव हैं। 5. अजीव (शरीरादि) जीव प्रतिष्ठित हैं। 6. जीव (कर्माधीन जीव) कर्म के वशवर्ती रहे हुए हैं। 7. अजीव को जीवों में संग्रह कर रखा है। 8. जीव को कमों ने संग्रह कर रखा है, रोक रखा है। बालाब में डूबी हुई .नौका जिस तरह जल में एक मेक होकर रहती है. उसी प्रकार जीव और पुद्गल आपस में एक-मेक होकर लोक में रहते हैं। जैनागमों की इस अवधारणा के समान ही पुराणों में भी चेतन एवं अचेतन के संयोग को ही संसार कहा गया है। जीव तथा जड़ के मिश्रण से ही जगत् है। मात्र जड़ पर अथवा मात्र जीव पर जगत् नहीं चल सकता। इस प्रकार से जगत् के सन्दर्भ में पुराणों में भी जैन दर्शन के समान अनेकान्तवादी चिन्तन दृष्टिगत होता है। जैसाकि वैदिक संस्कृति का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि जगत् ईश्वरकृत है, उसके सर्जक अथवा नियन्त्रक ईश्वर हैं। उसके स्थान पर 241 / पुराणों में जैन धर्म