________________ जितनी महासमुद्र के समक्ष एक नन्ही-सी बूंद। चौदह राजूलोक में मनुष्यक्षेत्र मात्र ढाई द्वीप ही है। संसार में अनन्तकाल से परिभ्रमण करते हुए आत्मा का जब क्रमिक विकास होता है, तब वह अनन्त पुण्यकर्म के उदय से विभिन्न योनियों को पार करता हुआ मनुष्यजन्म ग्रहण करता है। अशुभ कर्मों का भार दूर होता है व आत्मा शुद्ध, पवित्र और निर्मल बनता है, तब कहीं यह जीव मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ गति को प्राप्त करता है। संसारी जीवों को मनुष्य-जन्म चिरकाल तक इधर-उधर अन्य योनियों में भटकने के बाद बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है। जो प्राणी छल-कपट से दूर रहता है, प्रकृति से सरल होता है, अहंकार से शून्य होकर विनयशील होता है, सब छोटे-बड़ों का यथोचित सम्मान करता है, दूसरों की किसी भी प्रकार की उन्नति को देखकर दाह नहीं करता, प्रत्युत जिसके हृदय में हर्ष और आनन्द की स्वाभाविक अनुभूति होती है, रग-रग में दया का संचार होता है, जो किसी भी प्राणी को दुःखी देखकर द्रवित हो जाता है एवं उसकी सहायता के लिए तन-मन-धन सब लुटाने को तैयार हो जाता है, वह मृत्यु के पश्चात् मनुष्य-जन्म पाने का अधिकारी होता है। मनुष्य के विकास की सम्भावनाएँ सर्वाधिक बताते हुए कहा गया है कि मनुष्य को छोड़कर अन्य गति वाले जीव सिद्धि को प्राप्त नहीं होते, क्योंकि उनमें ऐसी योग्यता नहीं है। यह मनुष्य भव अत्यन्त दुष्प्राप्य है तथा जीवों को बड़े लम्बे काल के बाद कभी मिलता है, क्योंकि कर्मों के फल गाढ़ (घोर) होते हैं। जो इस मनुष्य भव से भ्रष्ट हो जाता है, उसे बोधि प्राप्त करना दुर्लभ है।" मनुष्य-जन्म की महत्ता पुराणों में भी व्यक्त की गई है, विष्णु पुराण के अनुसार हजारों जन्मों की यंत्रणा भोग लेने के पश्चात् कभी महान् पुण्य का फल हो तो ही इस देश में मनुष्यदेह की प्राप्ति होती है। देवता भी यही कहते हैं कि जो स्वर्ग और मोक्ष के मार्गभूत भारतवर्ष में उत्पन्न हुए हैं तथा जिन्होंने इस कर्मभूमि में उत्पन्न होकर फलप्राप्ति की कामना से रहित अपने कर्मों को परमात्मा को अर्पण कर दिया है तथा इससे मलरहित होकर अन्त में उन्हीं अनन्त भगवान् में लीन हो जाते हैं, वे मनुष्य हम देवताओं से भी अधिक भाग्यवान् हैं। अपने स्वर्ग प्राप्त कराने वाले पुण्यकों के क्षीण होने पर हम कहाँ जाकर उत्पन्न होंगे, हम यह नहीं जानते / वे मनुष्य धन्य है जिन्होंने भारतवर्ष की पृथ्वी पर उत्पन्न होकर इन्द्रियों की शक्ति को नहीं छोड़ा है। देवत्व से प्रच्युत होने पर हम मनुष्यत्व को प्राप्त करें, क्योंकि जिस कार्य को मनुष्य करने में समर्थ है, उसे देवता तथा असुर कोई नहीं कर सकता। देखिये, कर्म रूपी बेड़ियों से बंधे हुये, अपने कर्म की प्रसिद्धि के इच्छुक, सुख के लेशमात्र से मोहित होकर कुछ कर्म (शुभ) नहीं करते हैं। अतः इस क्षेत्र में जन्म, मनुष्यदेह तथा शास्रोक्त धर्म का परिपालन करना दुर्लभ होता है।*५ 239 / पुराणों में जैन धर्म