________________ पुराणों में भी आत्मा में परमात्मा की सत्ता स्वीकृत है, मात्र अशुद्धि के ही कारण उनमें भेद है। जिस प्रकार से मलादि से मिश्रित स्वर्ण, अशुद्धियों के हट जाने पर शुद्ध हो जाता है, वैसे ही निर्मल (निरावरण) हो जाने पर आत्मा साक्षात् परमात्मा हो जाता है। साथ ही आत्मा का अनेकत्व भी प्रदर्शित है। इससे आत्म-स्वातन्त्र्य भी स्पष्ट होता है। जीव स्वयं ही अपने उत्थान या पतन का उत्तरदायी है। बंधन और मुक्ति उसी के आश्रित हैं। कर्मबंधन एवं मुक्ति की व्याख्या भी पुराणों में जैनमन्तव्य के समान ही है। . जैनदर्शन में कषाययुक्त अर्थात् रागद्वेष जनित (मानसिक आवेगों से युक्त) प्रवृत्ति द्वारा कर्मबंध होता है। यही आशय पुराणों का भी है। पुराणों के अनुसार भी आन्तरिक राग-द्वेष अथवा आसक्ति के द्वारा कर्मबंध होता है और जब वह आसक्ति हट जाती है तो वह कर्मबद्ध नहीं होता। मुक्ति के सम्बन्ध में भी यही मन्तव्य है कि शुभाशुभ समस्त कर्मों को नष्ट कर देने के बाद आत्मा मुक्त होता यहाँ दृष्टव्य है कि जैनदर्शन की तरह आत्मा को अनादिकालीन कर्मबद्ध स्वीकार किया गया है। कर्म को पुराणों में सूक्ष्म शरीर से सम्बद्ध माना है जो जैनदर्शन के कार्मण शरीर से पर्याप्त समानता रखता है। कर्म के अस्तित्वकाल पर विचार करते हुए यही निष्कर्ष निकाला गया है कि आत्मा के साथ कर्म अनादिकाल से है, क्योंकि कोई ऐसा काल, नहीं था तब वह मुक्त था एवं सर्वथा मुक्त आत्मा के कर्म सम्पृक्त न होने से यह अनादित्व बताया गया है। जगत् के विभिन्न परिवर्तनों का कारण कर्म ही है जो अपने सहकारी कारणों से युक्त हो फल प्रदान करता है। कर्म के विषय में जैनधर्म के समान ही पुराणों में भी यही प्रतिपादित है कि व्यक्ति स्वकृत कर्मों का ही फल भोगता है। किसी दूसरे के कर्म का फल कोई अन्य नहीं प्राप्त करता। व्यक्ति जैसी-जैसी शुभ या अशुभ प्रवृत्तियाँ करता है वैसे ही कर्मों का बंधन होता जाता है जो कि परिपाक काल (उदयकाल) में सुख या दुख के रूप में अपना परिणाम बता देता है। उन परिणामों को अवश्य भोगना पड़ता है। कर्मों के परिणामस्वरूप वह अनुकूलताएँ तथा प्रतिकूलता प्राप्त करता है। यद्यपि ये कर्म अनादि हैं परन्तु अन्त सहित हैं। आत्म-पुरुषार्थ के द्वारा उन्हें आत्मा से पृथक् किया जा सकता है। कर्म के विभिन्न प्रकार हैं, जिन्हें मुख्यतः शुभ या अशुभ (पुण्य, पाप) दो कोटियों में विभाजित किया जाता है। इसके अतिरिक्त एक ऐसी भी अवस्था पुराणों में बताई गई है, जो जैनदर्शन के ऐर्यापिथिक कर्म के तुल्य हैं। उस अवस्था में योगी 5 / पुराणों में जैन धर्म