________________ कर्म करते हुए भी शुभाशुभ कर्मों के बन्धन से निर्लिप्त रहता है और अन्ततः समस्त कर्मों का निर्मूलन करके मुक्त हो जाता है। .. कर्म सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति का भविष्य स्व पर निर्भर होता है। वर्तमान-कालीन पुरुषार्थ ही भविष्य में भाग्य के रूप में उभरता है। अतः व्यक्ति जैसी शुभ या अशुभ प्रवृत्ति या आचरण करता है वैसा ही कर्मबंधन उसे प्राप्त होता है। जीवन में होने वाली उन प्रवृत्तियों का संस्कारित रूप ही सदाचार है। अपने आचरण के आधार पर व्यक्ति कर्मबद्ध होता है एवं कर्मों से मुक्त होता है। दुराचरण के द्वारा होने वाले अधःपतन से बचने के लिए मनीषियों ने सदाचार के रूप में विभिन्न आचार-व्यवस्थाएँ बनाई हैं। सदाचार के रूप में कुछ आचार ऐसे हैं जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए मूलगुणों के रूप में आवश्यक हैं, उनको सामान्य आचार कहा गया है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। ये सभी वर्गों तथा आश्रमों के लिये सामान्य (अनिवार्य) हैं। पुराणों में भी जैनदर्शनवत् ही अहिंसा को जीवन में धारण करने योग्य प्रमुख व्रत बताया गया है। न केवल कायिक अर्थात् दिखाई देने वाली हिंसा को ही हिंसा कहा है अपितु मानसिक हिंसा भी त्याज्य बताई गई है। हिंसा के कटुक परिणाम होते हैं। समस्त सद्गुण अहिंसा में समाहित हो जाते हैं। अहिंसा के अभाव में कोई भी गुण सद्गुण नहीं हो सकता। . सत्य की विशेष व्याख्या करते हुए इसे आधारस्वरूप कहा गया है। सत्य का पालना बहुत दुर्लभ है। जीवन के प्रत्येक व्यवहार व आचार में ही सत्यता के वास्तविक दर्शन होते हैं। वाचिक सत्य की बात अपनी जगह अलग है। सत्य के समान ही अस्तेय अर्थात् अचौर्यव्रतं को भी महत्वपूर्ण बताया है तथा ब्रह्मचर्य को महान् गुण प्रतिपादित करते हुए अब्रह्म सेवन त्याज्य बताया है। पंचेन्द्रिय संयम का निर्देश देते हुए लोभ-लालसा-कामना इत्यादि आसक्तियाँ परिहरण योग्य बताई गई हैं क्योंकि आन्तरिक लालसा के कारण व्यक्ति परिग्रह जुटाता है तथा अन्त में वही परिग्रह उसके लिए दुःखदायक सिद्ध होता है। उपर्युक्त पाँचों को जैनधर्म में पंच अणुव्रत तथा महाव्रत के रूप में महत्व दिया है तथा पुराणों में भी इन्हें पंच यम के रूप में सर्वप्रथम अंगीकरणीय बताया गया है। ___ इनके अतिरिक्त क्षमा, तप, सत्संगति, सेवा, शौच आदि सद्गुणों का महत्व भी जैनधर्म के सदृश ही पुराणों में मिलता है। क्षमा को साधक का आभूषण स्वरूप कहा है। जैनदर्शन में तप का विशेष महत्व है। पुराणों में भी तप को एक विशिष्ट शक्ति के रूप में अपने उत्कर्ष के विषय प्रवेश / 6