________________ पुराणों में यद्यपि जैनधर्म से अनेक वैमत्य भी दृष्टिगोचर होते हैं, उनका विशेष रूप से विवेचन न करते हुए यहाँ मुख्यतः साम्य ही विवेचित है। जैनदर्शन की भाँति ही पराणों में सत के नित्य परिणामी स्वरूप को स्वीकार किया गया है। सत् में होने वाला परिवर्तन उसकी नित्यता को प्रभावित नहीं करता। . जिसप्रकार से जैनदर्शन में द्रव्य की अवधारणा का विवेचन करते हुए सत् . को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण युक्त बताया है, उसीप्रकार पुराणों में भी सत् की यही व्याख्या है। उनमें सत् के नित्यत्व का निरूपण करते हुए उसके तिरोभाव अर्थात् जन्म-नाश भी निरूपण है। द्रव्य के दो रूपों का उल्लेख जैनदर्शन के समान पुराणों में भी है, क्योंकि जड़ एवं चेतन दोनों ही तत्वों का विवेचन करते हुए उनका स्वरूप बताया गया है। जड़ के रूप में प्रकृति (अचेतन) का तथा प्रकृति के विकारों का विशद् विश्लेषण पुराणों में है तथा चैतन्य के रूप में पुरुषत्व विवेचित है। - जैनधर्म में वर्णित द्रव्य के छ: प्रकारों में से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय का नामशः एवं तथ्यतः विशेष उल्लेख. तो पुराणों में नहीं है, फिर भी पुराणों में वर्णित सृष्टि को गति प्रदान करने वाले रजसगुण तथा अवरोधक (प्रतिरोधक) के रूप में तमस्गुण वर्णित हैं, जो कुछ अंशों में उपर्युक्त द्रव्यों से साम्य रखते हैं; यद्यपि ये उसप्रकार से उदासीन रूप से कार्य नहीं करते। आकाश को पुराणों में भी जैन दर्शन के समान अनन्त एवं सर्वत्र व्याप्त कहा है एवं काल का भी परिवर्तन के प्रमुख कारण के रूप में निरूपण है। पुद्गलद्रव्य की नित्यानित्य एवं जीवद्रव्य के विश्लेषण के सन्दर्भ में अनेक तथ्य तुलनीय हैं। जीवद्रव्य के विशेष विश्लेषण के अन्तर्गत आत्मा के स्वरूप आदि का प्रतिपादन किया गया है। चैतन्यस्वरूप आत्मा को समस्त जड़ (पौगलिक) से भिन्न प्रदर्शित किया है। आत्मतत्व के नित्यत्व की मूल अवधारणा पुराण तथा जैनदर्शन में समान रूप से दृष्टिगोचर होती है। आत्मतत्व का स्वरूप निर्धारण करते हुए जैनधर्म में आत्मा को चैतन्यमय बताया है जैसे उष्णता अग्नि का स्वभाव है वैसे ही ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। पुराणों में भी इसी प्रकार से आत्मा को चैतन्ययुक्त बताया है तथा जैनदर्शन के तुल्य ही संसारी आत्मा (जीव) को अनादिकालीन कर्मबद्ध माना है। उसी को शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता कहा है एवं भोक्ता भी। इसी कारण जन्म- मरण का चक्र चलता रहता है। इतना होते हुए भी जिस प्रकार से जैनदर्शन में उस आत्मा को परमात्मा के समान बताते हुए अन्तर मात्र कर्मों के कारण माना है; उसी प्रकार _ विषय प्रवेश / 4